क्या
ईसा भारत आये थे?
+रमेशराज
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ईसा तीस वर्ष की आयु में एक महान धर्मापदेशक बनकर उभरे
और उन्होंने अपनी जाति के मध्य जो धार्मिक दर्शन रखा, उसने जन-जन के बीच एक नयी वैचारिक क्रान्ति के बीच बोये। अपनी तीस वर्ष की
उम्र से पूर्व के काल में वे कहां थे और क्या कर रहे थे, इसका
वर्णन ‘बाइबिल’ में नहीं मिलता। कहीं-कहीं
यह अवश्य लिखा हुआ है कि ‘वे अठारह वर्ष तक सामान्य जीवन जीते
रहे और एकांतवासी होकर ईश्वर की आराधना में लीन रहे।’
सवाल यह उठता है कि ऐसे वैचारिक ओज से परिपूर्ण व्यक्ति
का इतने काल तक क्या छुपा हुआ रहना सम्भव है? इसका उत्तर
डॉ. नोटोविच की वह पुस्तक देती है, जिसके प्रकाशन ने सम्पूर्ण
अमेरिका के ईसाई समाज में तूफान ला दिया। पुस्तक में ईसा के इसी अज्ञात काल का रहस्य
खोला गया है और बताया गया है कि इस काल में ईसा भारतीय गुरुओं के शिष्य बनकर ज्ञान
अर्जित करते रहे। ये पुस्तक अमेरिकी ईसाइयों को भला रास ही कैसे आ सकती थी,
अतः भारी दबाव के चलते अमेरिकन सरकार ने उसे जब्त कर लिया।
जब्तशुदा पुस्तक का नाम है-‘अननोन लाइफ ऑफ जीसस’। इस पुस्तक में ईसा के भारतीय प्रवास
के जो प्रमाण प्रस्तुत किये गये हैं, वे सही इसलिए जान पड़ते
हैं, क्योंकि ‘श्रीराम वेदांत सोसायटी’
के सदस्य तथा विवेकानंदजी के सहकारी स्वामी अभेदानंद तथा तिब्बत के लामाओं
ने इस पुस्तक को तिब्बत में देखा है। स्वामी अभेदानंद और तिब्बती लामाओं का मानना है
कि ‘यह पुस्तक ईसा को सूली पर चढ़ाये जाने से 3-4 वर्ष पूर्व लिखी गयी है।
यह पुस्तक डॉ. नोटोविच को तिब्बत के ही मठ से प्राप्त हुई थी, जिसका उन्होंने अंग्रेजी में अनुवाद कर उसे ‘अननोन लाइफ
ऑफ जीजस’ नाम से प्रकाशित कराया।
ईसा योग-ज्ञान
हेतु भारतीय संतों-महात्माओं, ऋषियों से मिले होंगे,
इस सम्बन्ध में ‘आर्थर लिली’ नाम के एक विद्वान लेखक की पुस्तक ‘इण्डिया इन प्रिमिटिव
क्रिश्चयनिटी’ [ प्राचीन ईसाई धर्म में भारत का स्थान ] के इस
अंश को भी प्रमाण स्वरूप रखा जा सकता है, जिसमें लिली ने लिखा
है- ‘‘ईसा, ‘एसेन’ सम्प्रदाय में सम्मिलित हो गये थे। ईसा ‘एसेन’
भारतीय महर्षियों की भांति परमात्मा के ध्यान में लीन होते और आत्मज्ञान
हेतु साधनारत रहते।’’ [ पृ. 200 ]
‘एसेन’ कौन थे,
इसके बारे में एक भारतीय विद्वान का मत है- ‘एसेन’
शब्द संस्कृत के ‘ईशान’ से
निकला है जो भगवान शिव का एक नाम है। शिवजी के उपासक को ‘ईशानी’
कहा जाता है और उसी से ‘एसेन’ की उत्पत्ति हुई है।’’
‘ईसा’,‘ईशान’
और ‘एसेन’ में जो साम्य या
सामीप्य दिखायी देता है, उसमें कुछ भी अविश्वसनीय इसलिए नहीं
है क्योंकि भारतीय संस्कृति के परम विद्वान आचार्य श्रीराम शर्मा अपनी पुस्तक ‘महापुरुष ईसा’ में लिखते हैं कि- ‘‘बौद्ध धर्म का उदय होने पर महाराज अशोक ने समस्त एशिया में बौद्ध प्रचारक भेजकर
उसका संदेश प्रसारित कराया था। उस समय तक ईसाई और मुसलमानों के धर्म की उत्पत्ति नहीं
हुई थी तथा बौद्ध धर्मोपदेशक अफगानिस्तान, ईरान, अरब होते हुए एशिया की अन्तिम पश्चिमी सीमा पर पहुंचे गये थे, जहां कि पैलेस्टाइन [ जहां ईसा का जन्म हुआ ] का देश अवस्थित है। बौद्ध उपदेशों
से प्रभावित होकर वहां के साधक भी भारतवर्ष आने लगे थे और बौद्ध तथा ब्राहमण गुरुओं
से आध्यात्मिक साधना की जानकारी प्राप्त करने लगे थे। ....ईसा मसीह भी अपनी आध्यात्मिक
जिज्ञासा की पूर्ति के लिये इन्हीं ‘एसेन’ विद्वानों से परिचित हो गये थे और उनकी साधना में भाग लेने लगे थे।’’
तो क्या ईसा ने वास्तव में भारतीय गुरुओं का शिष्य बनकर
शिक्षा ग्रहण की? इसका उत्तर डॉ. नोटोविच की पुस्तक ‘अननोन लाइफ ऑफ जीजस’ ही भलीभांति देती है, जिसमें यह तथ्य पूरी तरह स्पष्ट तरीके से रखे गये हैं कि-‘‘ ईसा जब तेरह वर्ष के हो गये तो उनके ज्ञान और विद्या से प्रभावित होकर उस स्थान
के कितने ही धनवान व्यक्ति उनके साथ अपनी कन्याओं का विवाह करने के अभिलाषी थे। पर
ईसा का ध्यान विवाह की तरफ बिलकुल न था। जब विवाह की चर्चाओं ने जोर पकड़ा तो वे अपने
पिता के घर से भाग गये। वे चौदह वर्ष की आयु में सौदागरों के एक दल के साथ सिंध पहुंचे,
यहां उनका मन न रमा तो जगन्नाथ पुरी पहुंचे गये। यहीं ईसा ने कई वर्ष
ब्राह्मण गुरुओं से वेद और शास्त्रों की शिक्षा
प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने राजगृह, बनारस आदि अनेक पवित्र
स्थानों पर अगले 6 वर्ष व्यतीत किये। बौद्ध साधुओं के साथ बौद्ध
शास्त्रों का अध्ययन किया।’’
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+रमेशराज,
15/109, ईसानगर, अलीगढ़
मो.-९६३४५५१६३०
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