गांधीजी
की हर नीति के विरोधी थे ‘ सुभाष ’
+रमेश राज
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नेताजी सुभाषचन्द्र बोस भारतीय स्वतंत्रता
संग्राम के एक ऐसे चमकते सितारे थे, जिसमें सच्ची देशभक्ति का
ओज था। इस सितारे की आभा के सम्मुख न नेहरू टिक पाते थे और न अंहिसा के मंत्रों का
जाप करने वाले महात्मा गांधी। अपने समय के सर्वोच्च क्रान्तिकारी सुभाष आई.सी.एस. उत्तीर्ण
ऐसे विचारवान, विद्वान और महान नेता थे, जो अंग्रेजों के सम्मुख भारतीय स्वतंत्रता की भीख मांगने वाले कांग्रेसी नेताओं
के समान याचक की भूमिका में कभी नहीं रहे। वे 26 वर्ष की युवा
अवस्था में अपनी प्रतिभा के कारण कलकत्ता के मेयर बने। मेयर पद पर रहकर भी उन्होंने
अंग्रेजों की शोषणवादी अनीतियों का जमकर विरोध किया। उनका विरोध इतना आक्रामक होता
था कि अंग्रेजों के सम्मुख वे हर बार एक नया खतरा बनकर उपस्थित होते थे। अंग्रेजों
के प्रति आक्रामक रवैये के कारण ही उन्हें अनेक बार जेल जाना पड़ा।
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस जब कांग्रेस
के कार्यकर्ता बने तो अपनी कुशल रणनीति और अदभुत् कार्यशैली के कारण ख्याति के उच्च
शिखर पर पहुंच गये। उनकी विचारधारा और ख्याति से प्रभावित होकर सन् 1938 में जब उन्हें कांग्रेस के हरिपुर अधिवेश का अध्यक्ष बनाया गया तो उन्होंने
गांधी जी की अंहिसावादी विचारधारा की खिल्ली उड़ाते हुए कहा-‘गांधी जी का राजनीतिक ही नहीं सामाजिक दर्शन भी खोखला है। गांधी जी जिसे अंहिसा
कहते हैं, उसका दूसरा नाम कायरता है। एक गोरा बंदर हमें घुड़काता है और हम थर-थर कांपना शुरू कर देते हैं।
भाइयो, आप ही सोचो, क्या इस तरीके से भारत
को आजाद करा लोगे? अगर भारत को आजाद कराना है तो वीर बनो। माता
की आजादी के लिये अपनी कुर्बानी देने को तैयार रहो ।’
गांधी जी के ब्रह्रमचर्य प्रयोंगों,
प्रेम की आचार संहिता और अंग्रेजों की हर बात पर नतमस्तक हो उठने की
नीति के सुभाष कितने विरोधी थे, यह 28 अक्टूबर
1940 को प्रेसीडेंसी जेल से अपने भाई शरदचन्द्र बोस को लिखे पत्र
से उजागर हो जाता है। नेताजी पत्र में लिखते हैं-‘जो आदर्शवाद
व्यावहारिक स्तर पर केवल शून्य को प्रकट करता हो, ऐसे आदर्शवाद
के बूते गांधी जी स्वतंत्र भारत का दम्भ भरते हैं। यह व्यावहारिकता नहीं, केवल विद्रूपता है। इसका पतिणाम सुखद
नहीं निकल सकता है। यह धोखाधड़ी का एक ऐसा खेल है जिससे ब्रिटिश सरकार का तो भला हो
सकता है, किन्तु भारतीय जनता का नहीं। मैं गांधी जी की राजनीति
के बारे में जब भी सोचता हूं तो लगता है कि उल्टी सोच वाले लोगों के हाथों में यदि
स्वराज आ गया तो देश दुर्गति के दलदल में फंस जायेगा।’
नेताजी सुभाष के इन क्रान्तिकारी
विचारों का प्रभाव उस समय कांग्रेस के कार्यकर्ताओं में इतना पड़ा कि सन् 1939 में आयोजित त्रिपुरा अधिवेशन में अध्यक्ष पद के चुनाव के समय सुभाष के सम्मुख
गांधी जी के उतारे गये प्रत्याशी सीता रमैया को करारी हार का सामना करना पड़ा। सुभाष
की यह जीत उनकी क्रान्तिकारी विचारधारा की जीत थी, दूसरी ओर गांधी
जी के अंहिसावादी दर्शन की अभूतपूर्व पराजय।
इस पराजय का बदला गांधीजी और उनके
समर्थकों ने सुभाष को अध्यक्ष पद से हटाकर लिया। सुभाष शांत नहीं बैठे। उनका कांग्रेस
से मोह भंग हो गया। वे 20 जून 1943 को टोकियो
पहुंचे और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के वृद्ध योद्धा रास बिहारी बोस से ‘आजाद हिंद
फौज’ की बागडोर अपने हाथो में ले ली। उन्होंने ‘आजाद हिंद फौज’ के बलवूते लड़ते हुए
अंडमान-निकोवार द्वीप समूह पर अपना भारतीय झण्डा लहराया। वहां अपनी एक बैंक स्थापित
की और एक रेडियो स्टेशन बनाया। वहीं से उन्होंने भारतीयों को संदेश दिया-‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा।’
इसके बाद ‘आजाद हिंद फौज’ ने कोहिमा
जीता, इंफाल को भी जीतने का प्रयास किया। सुभाष की सेना के भारत
में प्रवेश करने पर कांग्रेस के नेताओं की प्रतिक्रिया थी-‘‘सुभाष
भारत की ओर आगे बढ़ा तो नंगी तलवारों से उसका और उसकी फौज का सामना किया जायेगा।’’
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