ये है हमारी रूदाद..
शनासाई सी ये पच्चीस वर्ष शरीके-सफर के साथ
सबात लगाते हुए
असबात कभी अच्छी कभी बुरी की..
ताउम्र बेशर्त शिद्दत से निभाते रहे..
सोचती हूँ ये जिंदगी रोज़ नई रंगो में ढलती क्यूँ हैं..
कई दफ़ा कहा..
कभी इक रंग में ढला करो..
गो एक हाथ से खोया तो दूसरे से पाया
हादिसे शायद इस कदर ही गुज़र जाती है..
शादाबों का मलबूस पहन
तरासती हूँ उस उफक को जो धूंध से परे हो..
मामूल है ये जिंस्त हर ख्वाब-तराशी के लिए
सबब है उल्फत की जिनमें सराबोर है चंद
मदहोशियाँ,सरगोशियाँ,गुस्ताखियाँ और बदमाशियाँ
वाकई.. पर मौत को वजह नहीं बनाने आई हूँ।
©पम्मी सिंह
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सुन्दर पंक्तियाँ
जवाब देंहटाएंआपका हार्दिक धन्यवाद
हटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 30 अप्रैल 2017 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआपका हार्दिक धन्यवाद..
हटाएंसुन्दर अभिव्यक्ति ,आभार।
जवाब देंहटाएंजी,धन्यवाद।
हटाएंसुन्दर।
जवाब देंहटाएंजी,धन्यवाद।
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