सूरज आग का गोला ही सही
गैसों का बवंडर ही सही
मगर, पीता है अभी भी
अर्ध्य का जल
धरती में है कितने कितने
चट्टानी रहस्य
फिर भी बचा है ,
माँ जैसा गुनगुनापन जो ,
अंकुरों में भरता
दानों में झरता हैं दूध सा
अतल में है कहीं तल
छोर में अछोर
विज्ञान के कटघरे में
बे -दिल है चाँद ,मगर
अभी भी धडकता है अबोध
बाल मन का मामा बनकर .
.बचपन का चन्द्र खिलौना सा.
.करवाचौथ की मनुहार सा.
नदी को आचमन
सूर्य को नमन
आग को हवन
जल को तर्पण
देकर हम देखते है-
विराट से गुंथा अपना अस्तित्व
-विद्या गुप्ता
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंआपने लिखा...
जवाब देंहटाएंऔर हमने पढ़ा...
हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें...
इस लिये आप की रचना...
दिनांक 17/01/2016 को...
पांच लिंकों का आनंद पर लिंक की जा रही है...
आप भी आयीेगा...
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (17-01-2016) को "सुब्हान तेरी कुदरत" (चर्चा अंक-2224) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत ख़ूबसूरत
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