ब्लौग सेतु....

2 जनवरी 2017

लोककवि रामचरन गुप्त के दो विरह-गीत





वियोगी ही रहेंगे 
------------------------------------------
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे
आज से दो प्रेमयोगी बस वियोगी ही रहेंगे।
आयेगा मधुमास फिर भी छायेंगी श्यामल घटाएं
तुम नहीं हो साथ अपनी बात बिछुड़ें मन कहेंगे।

दूर हम मजबूर होंगे अब नयन से या मिलन से
इस व्यथा को इस कथा को हाय रे हम तुम सहेंगे
ध्यान रखना मीत मेरे नेह के बंधन न टूटें
हरिचरन तुम हो जो साथी रामचरन हम भी रहेंगे।
------------------------------------------
+लोककवि रामचरन गुप्त



जीवन के दिन 
--------------------------
घड़ी-घड़ी नित घड़ी देखते काट रहा हूं जीवन के दिन
क्या सांसों को ढोते-ढोते ही बीतेंगे जीवन के दिन।

कभी जागते स्वप्न देखते रातें तो कट जाती हैं
पर कैसे पूरे हो पायेंगे मेरे ये जीवन के दिन।

गाज गिरे पर जगे चेतना प्राणहीन इस मन पाहन में
किसी तरह तो प्राणवान हों मेरे ये जीवन के दिन।

अब आंखों से दीवारों का होता है हर रोज सामना
भटक रहे हैं आज अंधेरे में मेरे ये जीवन के दिन।

हाय न पूरी हुयी कामना कुछ न हुआ भू गर्भ न फूटा
सुलग रहे ज्वालामुखि-से अब तक ये जीवन के दिन।

बाती बनकर जले कभी यह धुनी रुई-सी मधुर कल्पना

रामचरन उज्जवल प्रकाश दें तम में ये जीवन के दिन।
-----------------------------------
+लोककवि रामचरन गुप्त

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

स्वागत है आप का इस ब्लौग पर, ये रचना कैसी लगी? टिप्पणी द्वारा अवगत कराएं...