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17 फ़रवरी 2017

तेवरी इसलिए तेवरी है [ भाग-1 ] +रमेशराज




तेवरी इसलिए तेवरी है [ भाग-1 ]

+रमेशराज
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तेवरी एक ऐसी विधा है जिसमें जन-सापेक्ष सत्योन्मुखी संवेदना अपने ओजस स्वरूप में प्रकट होती है।  तेवरी का समस्त चिन्तन-मनन उस रागात्मकता की रक्षार्थ प्रयुक्त होता है, जो अपने सहज-सरल रूप में नैतिक, निष्छल, निष्कपट और प्राकृतिक है। रागात्मकता की यह प्राकृतिकता आपसी प्रेम, भाईचारे अर्थात् मानवीय सम्बन्धों की प्रगाढ़ता, सद्भाव के मंगलकारी विधान में अभिवृद्धित , अभिसंचित, पुष्पित-पल्लवित और उत्तरोत्तर विकसित होती है। प्रेम-तत्व का उद्दात्त, सदाचारी, सर्वमान्य रूप या स्वरूप यदि मर्यादा का पालन करते हुए शोभायमान हो तो तेवरी के लिए सहज ग्राहय है। तेवरी प्यार का नहीं, प्यार के व्यापार का विरोध करती है। तेवरी शृंगार के नहीं, पापाचार या व्यभिचार के खिलाफ अपनी त्यौरी बदलती है। यही तेवरी का तेवरीपन है।
     तेवरी अर्थात् ऐसे तेवर वालीभाव-भंगिमा जो प्यार के संसार पर प्रहार करने वालों के विरोध में मानवीय चेतना को अग्नि-धर्म निभाने को प्रेरित करती है। अतः
 तेवरी के बारे में यह धारणा पूरी तरह भ्रामक है कि तेवरी में प्रेम-तत्व की वर्जना है।
 तेवरी को लेकर साहित्यकार श्री रामेश्वर हिमांशु काम्बोज यह कहना कि-‘‘प्रेम-प्यार भी कोई छूत की बीमारी नहीं है। हम रोजमर्रा की जि़न्दगी में इसके लिए तरसते हैं... +तेवरीपक्ष अंक-5, वर्ष-2,   

तेवरी के संदर्भ में काम्बोजजी का यह आरोप कि-‘‘प्रेम-प्यार भी कोई छूत की बीमारी नहीं है। हम रोजमर्रा की जि़न्दगी में इसके लिए तरसते हैं...’  इसलिए अनुचित है क्योंकि तेवरी की दृष्टि प्रेम-प्यार में लिप्त होने से पूर्व उस प्रेम के लिए तरसनेको समाप्त करने पर टिकी है जिसके कारण अनास्था, घात-प्रतिघात, अविश्वास, अवज्ञा, अपमान आदि का वातावरण बनता है। तेवरी वातावरण में मिठास घोलने के लिए संकल्परत है। मिठास घोलने के इस संकल्प का विकल्प यदि तेवरी का तिरोभाव से भर कर उग्र हो जाना है तो इस उग्रता को महज गाली गलौज क्यों माना जा रहा है?   
तेवरियों को पढ़कर साहित्यकारों के मन में ये विचार क्यों आ रहा है-‘‘ तेवरियाँ पढ़कर हमारे भी तेवर बदल गये। बस हाथ में ले लिया डंडा, अब आप बताइए किसके सर पर दे मारूँ।’’ [कालीचरण प्रेमी, तेवरीपक्ष-3, 1984, पृ.8]  
     तेवरी के प्रति अधकचरे, अपुष्ट, तर्कहीन बयानों से स्पष्ट होता है कि ऐसे लोग तेवरी के मंगलकारी अभिप्राय को समझने के बजाय डंडे का इस्तेमाल तेवरीकारों पर ही करना चाहते हैं।  आताताई-बर्बर समाज जो रति-क्रिया करते कौंच-युगल को तीरों से घायल करता है, उस युगल की वेदना को आज के ग़ज़ल के कथित हिमायती कथित बाल्मीकि जान-बूझकर या अन्जाने समझना नहीं चाहते। साहित्य के ऐसे बाल्मीकियों का दूसरे बाल्मीकि की चाँद लहूलुहान करना उस वर्ग को खाद-पानी देकर और ताकतवर बनाना है जो क्रौंच-युगल के साथ-साथ उस बाल्मीकि पर भी कुपित है, जिसकी आँखों में क्रौंच-युगल की रति-व्यथा का लेकर आँसू हैं।
तेवरी की दृष्टि रोटी खाने-पकाने वाले पर नहीं, बल्कि उस दुष्ट पर है जो रोटी पकाने-खाने वाले के हाथों से रोटी छीन लेता है और उसे खाता नहीं, उससे खेलता है या उसका व्यापार करता है। गोदामों में गरीब के हिस्से के अन्न-सब्जी-दाल को भरने वाले व्यापारी की मक्कारी को लेकर यदि तेवरी कुपित-आक्रोशित-क्रोधित  है तो तेवरी के इस तेवर को पहचानने-मानने के बजाय इस तेवर को विरुद्ध  ही खड़े होना कौन-सी समझदारी का नमूना है?
तेवरी में तेवर को लाने-दर्शाने से पहले तेवरीकारों को आत्मशुद्धि  के पाठ पढ़ाने वालों की भी कमी नहीं है। श्री शम्भुदयाल सिंह सुधाकर का भी स्वर कालीचरन प्रेमीजैसा है। वे कहते हैं- ‘‘हे कवियो- है तुममें कोई जिसने कुदृष्टि के लिए अपनी आँख को ललकारा हो। नाना विध विकारों से युक्त अपने मन को सचेत किया हो? तेवरी के लिए आवश्यक है-सबसे पहले अपनी शारीरिक व मानसिक व्यवस्था जो हर इकाई में तिरोभाव को प्राप्त कर चुकी है, के विरुद्ध जेहाद उठाया जाये।’’ [तेवरीपक्ष, परिचर्चा अंक-1, पृ.31]
सवाल यह है कालीचरन प्रेमीया सुधाकरजैसे साहित्य के रत्नाकर तेवरी को लेकर इतने भ्रमित, असंयमित या आक्रोशित क्यों  है? दरअसल ऐसे लोगों के भीतर उठती शंकाओं, पीड़ाओं के गुबार या बवंडर का सार यह है कि तेवरी को तेवरी नहीं, ग़ज़ल कहा जाए। इस मुद्दे पर बहस करने के बजाय चुप ही रह जाए।
तेवरी के मुद्दे पर तेवरीकारों को धमकाने के अंदाज देखिए-
‘‘समझदार हो गये हो तेवरी के साथ। सुधरने का क्या लोगे? पहले सामान्य आदमी बनो, साहित्कार तो बन ही जाओगे? [नंदल हितैषी, तेवरीपक्ष, .-जू.-1989, पृ. 12]
     ‘‘तेवरी नाम देकर क्या तीर मारा गया? तेवर शब्द से तेवरी बना लिया गया, जो केवल भावपक्ष को प्रकट करता है। वस्तुतः तेवरी और ग़ज़ल के विधान में कोई फर्क नहीं है।’’ [चेतन दुवे अनिल, तेवरीपक्ष, अग-सित. 08, पृ. 11]
     ‘‘भगवान करे या रमेशराज करे, तेवरी भी साहित्यिक विधाओं में गिन ली जाये और देवराजों, सुरेश त्रस्तों, अरुण लहरियों का कल्याण हो जाए। कोई पूछे कि साब तेवरी कहाँ मैन्यूपफैक्चर होती है तो झट मुँह से निकलेगा-अलीगढ़। अलीगढ़ को ऐसी ऊँचाइयाँ प्रदान करने वाले रमेशराज को मेरा आदाब। [ज्ञानप्रकाश विवेक, तेवरीपक्ष वर्ष-1984, अंक-5 पृ.6]
     ‘‘आप ग़ज़ल को तेवरीक्यों कहना चाहते हैं? ग़ज़ल जैसे लोकप्रिय शब्द के होते  तेवरी’, ‘गीतिका’, ‘ग़ज़लिकाजैसे शब्दों को चलाने की अवश्यकता क्या है?’’ [डॉ. सुधेश, तेवरीपक्ष, अप्रैल-सित.08, पृ.14]
     ‘‘इस तथ्य में कोई शक नहीं कि तेवरीकार स्वयं को महान साबित करने की नाकाम कोशिश कर रहे हैं। किसी तमाशगीर जमूरे की तरह चीख-चिल्लाकर ग़ज़ल के संदर्भ में भ्रामक, बचकाने, नासमझी-भरे बयान देकर भीड़ जुटा रहे हैं। तेवरी के दिशाहीन मैदान में वे तेजी से दौड़ लगाने लगे हैं, जो ग़ज़ल की महफिल में इज्जत नहीं बचा सके हैं। इस जालसाजी में कुछ बेशर्म किस्म के लघुकथाकार भी शामिल हो गये हैं जो पहले ग़ज़ल लिखते रहे हैं। [तारिक असलम तस्नीम, तेवरीपक्ष जन.मार्च.-84, पृ.9]
     ‘‘तेवरी लिखने वाले यदि अपने को कवि लिखने के स्थान पर तेवरीबाज लिखने लगें तो कविता से पृथक तेवरी भी एक विधा हो सकती है। सतर्क रहिए, भविष्य में घेवरीऔर पेवरीआदि विधाएँ भी पीछा करेंगी। [शम्भुदयाल सिंह सुधाकर’, तेवरीपक्ष अ.-जून-84, पृ.5]
     उपरोक्त सभी बयानों के माध्यम से तेवरीके विरुद्ध  की गयी चीख-पुकार का सार केवल यही निकलता है कि या तो तेवरीकार ग़ज़ल जैसे लोकप्रिय शब्दके आगे घुटने टेक दें, नहीं तो उन्हें अपशब्दों के व्यंग्य-वाण ऐसे ही झेलने पड़ेंगे। तेवरी को जबरदस्ती ग़ज़ल मनवाने की यह सलाह तेवरीकारों को साहित्यकार कहलाये जाने के लिये कितनी जरूरी और तर्कसंगत है, इसके लिए ग़ज़ल की उस महपिफल को समझ लिया जाये जिसमें तेवरीकार और बेशर्म किस्म के कुछ लघुकथाकार अपनी इज्जत नहीं बचा पाये तो तेवरीके दामन से लिपट कर-‘तेवरीबाजहो गये हैं। शायद इस प्रकार तेवरीके गले में पेवरीऔर घेवरीकी घंटी न बँधे।
ग़ज़ल क्या है?
 ग़ज़ल का सर्वविदित अर्थ है- ‘प्रेमिका से प्रेमपूर्ण बातचीत। ग़ज़ल में इस बातचीत की रीति मतला’, ‘मक्ता’, ‘शेरों की स्वतंत्र सत्ताके माध्यम से रदीफ-काफियोंऔर बह्रके साथ निभायी जाती है। मतला शेर की दोनों पंक्तियों में स्वर के बदलाव के आधार को लेकर काफिये मिलाये जाते हैं। शेष शेरों के काफिये पहली पंक्ति को छोड़कर दूसरी पंक्ति से मिलाये जाते हैं। एक ग़ज़ल, एक नहीं, अनेक मतला शेरों के साथ भी कही जा सकती है। काफिये के बाद जो शब्द ज्यों कि त्यों आते हैं उन्हें रदीफ कहा जाता है। ग़ज़ल में बह्र लयात्मक ओज रुक्नऔर अर्कानके माध्यम से भरती है। 
तेवरी क्या है?
जहाँ तक तेवरी के शाब्दिक अर्थ, उसके आत्मरूप अर्थात् चरित्र की बात है तो-‘‘ तेवरीशब्द  ही अपने आप में परिभाषा, स्वरूप तथा स्वतंत्र अस्तित्व-बोध का परिचय देता है। वस्तुतः तेवरी-अर्थात् तेवरवाली अभिव्यक्ति से परिपूर्ण रचनात्मक नवचेतना का प्रतीक है। अभिव्यक्ति की भंगिमा, व्यंजना का स्वरूप तथा दृश्य जगत के युगीन यथार्थ की आन्तरिक बोध-शक्ति का अनुभव और चिन्तन की गहराई से उद्भूत होकर उपस्थित होती है। जिसमें युगीन विसंगतियों, मानव-जीवन के अस्तित्व के संकट से उत्पन्न प्रतिक्रिया स्वरूप आक्रोश, क्रोधदि के यथार्थ-चित्र हमें उद्वेलित एवं संत्रास्त जीवन के विविध पक्षों को साकार करते हैं। तेवरी में अभिव्यक्ति की भंगिमा ही मुख्य रूप से उसे काव्य-रचना की सतत प्रवाहवान धारा में नया स्थान प्रदान करने की व्यापक योग्यता रखती।’’ [ डॉ . हरिवंश प्रसाद शुक्ल मधुकर’, ‘तेवरीपक्ष, जन.-मार्च-07, पृ. 15]
‘‘तेवरी का उद्भव एक ऐसे समाज की देन है, जिसको विशेष रूप से राजनेताओं ने सताया है। जैसे कोई स्वतंत्र सिंहों की वनस्थली में मदमस्त हाथी अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहे। लोकतंत्र का प्रत्येक मानव स्वतंत्र सिंह है और नेता मदमस्त हाथी। उसका प्रभुत्व तभी तक है, जब तक कि चुनाव का चपेटा लोकतंत्र के मानव रूपी सिंहों द्वारा मदमस्त हाथी के कानों पर नहीं पड़ता। तेवरीके कवि इस चपेटेको नेता के कानों पर बुरी तरह से पड़वाने की तैयारी कर रहे हैं। एक प्रकार से तेवरी का सबसे प्रबल पक्ष शोषकवर्ग पर कुठाराघात करना ही है। [विशन कुमार शर्मा, तेवरीपक्ष जन.मार्च-84 पृ.44
‘‘तेवरीके अपने निजी तेवर हैं। अपनी अपनी बौखलाहट है। आज बौखलाया, टूटा हुआ आदमी यदि अचानक मुँहफट हो जाए, मारने के र्लिए इंट उठा ले, अधिकारों के लिए सीधे-सीधे गाली-गलौज पर उतर आये तो इसे हमें गरियाने की क्या जरूरत है? ग़ज़ल के हिमायती यह क्यों नहीं देखते कि वह क्या चिल्ला रहा है? क्यों चिल्ला रहा है?’’ [चरनसिंह अमी’, तेवरीपक्ष-.-मार्च-84, पृ. 38]
‘‘तेवरी नाम है-उस तेवरयुक्त छंदबद्ध कविता का-जिसमें आकाश की बात नहीं, माटी की सुगन्ध है। जिसमें पाउडर या सेंट की सुगन्ध न होकर किसी श्रमिक का पसीना है।’’ [योगेन्द्र शर्मा, तेवरीपक्ष, जन-मार्च-84, पृ. 29]
     ‘‘तेवरी वसंत के उन्मादक रूप को नहीं निहारती, बल्कि उस पर टिकी आशाओं, सम्भावनाओं, विश्वासों के साकार रूप की नींव डालती है। तेवरी शान्त जल के ऊपर विहार करते हंसों के सौन्दर्य को नहीं निहारती, बल्कि बहेलिये के तीर से घायल हंस की आँखों में छुपी वेदना को टटोलती है। तेवरी नारी को साकी के रूप में नहीं चाहती बल्कि स्वार्थी समाज द्वारा उत्पीडि़त शोषित और छली हुई नारी की पीड़ा को अभिव्यक्त देती है। तेवरी किसी शराबी के अंग-संचालन-परिचालन पर ध्यान केन्द्रित न कर, अपना सारा सोच उसकी विकृतियों पर लगाती है।’’ [अरुण लहरी, तेवरीपक्ष-जन-मार्च-84, पृ. 27]
     तेवरी सम्बन्धी उपरोक्त सारी परिभाषाओं, व्याख्याओं से तेवरी का जो रूप उभर कर सामने आता है, वह सत्योन्मुखी, मंगलकारी  संवेदनशीलता से युक्त तो है ही, उसमें मानव-पीड़ा की करुणा भी रची-बसी है। करुणा का यही रचाव-बसाव उसे ग़ज़ल की तरह मादक-मदमस्त  होने से ही नहीं बचाता, उसे जुझारू और संघर्षशील बनाता है |
‘‘सामंती युग में जब अय्याशी खून बनकर रगों में दौड़ रही थी, उस वक्त कविता सामाजिक चेतना की मशाल नहीं, एक अय्याश की बदनसीब लौंडी थी। यह अन्त्यानुप्रास से बँधी  कविता मरमरी जिस्म, मख्मूर आँखों, खमदार जुल्फों व मस्त अँगड़ाइयों से भरा पिटारा थी, जिसे यथा नाम तथा गुण के कारण ग़ज़ल नाम से विभूषित किया गया।’’ ; [अरुण लहरी, तेवरीपक्ष, जन-मार्च-84, पृ. 53]
     ग़ज़ल का एक अर्थ और भी है- ‘‘ग़ज़ल के मूल में ग़ज़ाल’ ‘ हिरन का बच्चा शब्द है। ग़ज़ल उस कराह को कहते हैं, जब एक ग़ज़ाल शिकारी का तीर लगने पर अपनी बेबसी में निकालता है।’’
+विशनकुमार शर्मा, तेवरीपक्ष, जन.-मार्च-84, पृ. 44
ग़ज़ल के बारे में जनाब फिराक गोरखपुरी का मानना है कि-‘‘विवशता का दिव्यतम रूप में प्रकट होना, स्वर का करुणतम हो जाना ही ग़ज़ल का आदर्श है।’’
‘‘ग़ज़ल शब्द मूलतः अरबी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है-‘नारी के सौन्दर्य का वर्णन तथा नारी से बातचीत। नालंदा अद्यतन कोष में ग़ज़ल का अर्थ-फारसी और उर्दू में शृंगार-रस की कवितादिया गया है। लखनऊ हिन्दी संस्थान द्वारा प्रकाशित उर्दू-हिन्दी शब्द कोषमें ग़ज़ल का अर्थ प्रेमिका से वार्तालापहै।’’
+विनोद कुमार उइके दीप, ग़ज़ल से ग़ज़ल तक, पृ.20
     ग़ज़ल और तेवरी के तुलनात्मक अध्ययन से यह तथ्य  तो पूरी तरह स्पष्ट हो जाते हैं कि-
ग़ज़ल यदि नारी के सौन्दर्य या नारी से प्रेमपूर्ण बातचीत के संदर्भों के साथ भोगवाद में प्रासंगिक है तो तेवरी की प्रासंगिकता उसके उन तेवरों के साथ है, जिनमें नारी को भोगविलास की वस्तु मानकर भोगा, अपमानित और प्रताडि़त किया जाता है। तेवरी ऐसी वृत्तियों-प्रवृत्तियों का खुलेआम विरोध करती है। 
     ग़ज़ल यदि शिकारी के तीर से घायल ग़ज़ाल की कराह को प्रस्तुत करने का नाम है तो तेवरी उस बहेलिए के प्रति तीखा, आक्रोश से भरा बयान है जिसने ग़ज़ाल को तीर से घायल करने का कुकर्म किया है। तेवरी बहेलिये के तीर से घायल ग़ज़ाल की पीड़ा के ग़म को भुलाने के लिए न तो ग़ज़ल की तरह मयखाने में जाती है और न घायल ग़ज़ाल को शराब पिलाती है। तेवरी तो ग़ज़ाल के घाव पर शब्दों का मरहम लगाती है और ऐसा वातावरण तैयार करने में जुट जाती है, जिसमें कोई बहेलिया किसी भी ग़ज़ाल के तीर न मार सके।
     तेवरी में करुणा की गति घायल ग़ज़ाल रूपी समाज की रक्षा की ओर है, जबकि ग़ज़ल में जो करुणा का शोर है वह नितांत व्यक्तिवादी और मनोरंजन का एक साधन मात्र है।
     यदि विवशता के दिव्यतम रूप में प्रकट होने से स्वर का करुणतम हो जाना ग़ज़ल का आदर्श है तो तेवरी के स्वर में कठोरता, अत्याचारियों के प्रति उग्रता, विरोध और विद्रोह करने की क्षमता ही उसकी पहचान है। अपनी इस जुझारू वृत्ति को ही कायम रखना तब तक तेवरी का आदर्श है जब तक वातावरण शोषण, अत्याचार, पापाचार, हाहाकार से मुक्त नहीं हो जाता।
     वस्तुतः जब तेवरी, ग़ज़ल है ही नहीं तो उसके आक्रोश, असंतोष से भरे भावों-अनुभावों में ग़ज़ल के दर्शन करने वालों के मन के पागलपन को शांत करने के उपाय तेवरीकारों के पास हो ही क्या सकते हैं? फिर भी यह बताना-समझाना आवश्यक है कि जिस प्रकार एक जैसी शारीरिक संरचना होने के बावजूद भिन्न-भिन्न चरित्रों वाली औरतों को, केवल औरत न मान कर मालकिन-नौकरानी, डायन-मंगला, देवी-कुलटा, नगरवधू कुलवधू  रानी-दासी, मां-बेटी, बहिन-पुत्री कहा-पुकारा जाता है, ठीक इसी प्रकार का अन्तर तेवरी और ग़ज़ल में है।     
     एक जैसे शरीर वाले दो व्यक्तियों के असमान व्यवहार हों तो एक को निकृष्ट प्रवृत्तियों के कारण नीचतो दूसरे को सात्विक-श्रेष्ठ नैतिक और सौम्य व्यवहार के कारण संतया देव-पुरुषमाना जाता है। क्या किसी गुण्डे या समाजसेवी के आँख-नाक-हाथ-पैर-मुँह के बीच कोई भिन्नता होती है? आँख-नाक-हाथ-पैर-मुँह तो दोनों के समान होते हैं, असमानता तो उनके व्यवहार के कारण होती है जिसके आधार पर एक को गुण्डा तो दूसरे को समाज-सेवी कहा जाता है। अतः ग़ज़ल और तेवरी के शिल्प में ग़ज़लकारों को यदि किसी समानता के दर्शन होते भी हैं तो इसके आधार पर क्या तेवरी को ग़ज़ल कहा जा सकता है?
यदि किसी के हाथों में प्याला या शराब की बोतल लगी हो और किसी  दूसरे व्यक्ति के हाथ में तलवार लहरा रही हो तो क्या, इन दोनों व्यक्तियों की केवल हाथ की समानता को लेकर कोई मूल्यांकन किया जा सकता है? नहीं। वस्तुतः मूल्यांकन का आधर तो तलवार और बोतल बनेंगे! मिन्नत की अवस्था में जुड़े हाथ और क्रोध की अवस्था में मुट्ठी भिंचे हाथ की क्रिया एक समान कैसे हो सकती है? सच तो यही है कि कथ्य || विचार || बदलते ही शिल्प || शरीर || में अपने आप आमूलचूल परिवर्तन आ जाता है | तेवरी के शिल्प को ग़ज़ल का शिल्प बताने वाले मति के मारे ग़ज़लकारों की पता नहीं कब यह तथ्य समझ में आएगा ?
ठीक इसी प्रकार आक्रोशित आँखों की लालामी और विरह में, वेदना में जगी आँखों की सुर्खी में कोई फर्क नहीं है?
शिल्प अर्थात् आँख-नाक-मुँह हाथ-पैर के आधार पर किसी व्यक्ति-वस्तु, या विधा का मूल्यांकन हो ही कैसे सकता है? जब चरित्र अर्थात् आत्मरूप बदलता है तो शिल्प में उसी के अनुरूप आमूल परिवर्तन आ जाता है।
क्रोध-विरोध-विद्रोह, रति-भक्ति-हास हमारे आत्मरूप हैं, आन्तरिक दशा के प्रतीक हैं। यदि आन्तरिक दशा अर्थात् भाव-पक्ष में परिवर्तन आता है तो शिल्प-पक्ष अर्थात शारीरिक अनुभाव तो अपने आप बदल जाते हैं।
..... फिर भी मात्र शिल्प अर्थात् शरीर को लेकर तेवरी को ग़ज़ल मानने-मनवाने वालों की इस चिल्लपों का आखिर आधार क्या है? ऐसे ग़ज़ल-भक्तों के कुतर्कों का सार क्या है-आइए उसे भी परखें-डॉ. महेश्वर तिवारी कहते हैं-‘‘ तेवरी क्या है? दुष्यंत कुमार ने अपनी ग़ज़लों को तेवरी नहीं कहा। उन्हें आप किस खाने में फिट करेंगे?
|| तेवरीपक्ष-1, पृ.4 ||
     डॉ. तिवारी के उपरोक्त सवाल के उत्तर में यह सवाल किया जा सकता है कि ग़ज़ल क्या है? क्या ‘‘तमाम रात तेरे मैकदे में मय पी है, तमाम उम्र नशे में निकल न जाये कहीं’, जैसी कहन का नाम ग़ज़ल है? या-‘गिड़गिड़ाने का यहाँ कोई असर होता नहीं, पेट भरकर गालियाँ दो, आह भर कर बद्दुआ|| दोनों ही शे’र दुष्यंत कुमार || जैसे विद्रोही तेवर का नाम ग़ज़ल है।
शराब के नशे में उम्रभर बहकते हुए ग़ज़ल यदि किसी को अत्याचारियों के खिलाफ पेट-भर गालियाँ-बद्दुआ देने के लिये उकसा रही है तो शराब के नशे में आये इस जोश और आक्रोश को क्या एक ही खाने में फिट किया जा सकता है?
या क्या पुरुषत्व और नपुंसकपन के योग से बनी शक्ल का नाम ग़ज़ल है? डॉ. तिवारी के लिए यह ग़ज़ल का कमल हो सकता है, तेवरीकारों की तेवरीनहीं।
ग़ज़ल के कथित खिलते हुए कमल को लेकर अगर श्री राजकुमार सिंह यह कहते हैं कि -‘‘ ग़ज़ल निस्संदेह खाली बैठे का चुहलपन और आँख बंद करके आम आदमी के साथ दोगलापन करना था। अब जर्जर मान्यताओं के प्रति तेवर कटु-यथार्थमय हों, बेहद जरूरी हो गया है। तेवरी यह साहसभरा कदम उठाने जा रही हैतो इसमें अजीब क्या है, अटपटा क्या है? || तेवरीपक्ष-1, वर्ष-1, पृ.3 ||
     ‘तेवरीनाम को संदिग्ध, विवादास्पद ऐसे ही ग़ज़ल-भक्त बना रहे हैं, जिन्हें न तो ग़ज़ल के परम्परागत शास्त्रीय  अर्थ या अन्य सरोकारों से कोई लेना-देना है और न तेवरी के वास्तविक रूप-स्वरूप और चरित्र को समझना चाहते हैं।
     ग़ज़ल के प्रखर प्रवक्ता श्री ज्ञान प्रकाश विवेक कहते हैं-‘‘खूब लिखिए तेवरियाँ और खूब छापिए उन्हें तेवरीपक्ष में। लेकिन सवाल जरूर करुंगा-तेवरी को ग़ज़ल के शिल्प में क्यों लिख रहे है आप?’’ || तेवरीपक्ष, जु.-दि. 84, पृ. 6 ||
     तेवरी के शिल्प में ग़ज़ल के दर्शन करने वाले ग़ज़ल के अति विद्वान महान ग़ज़लकार ज्ञानप्रकाश विवेक से ऐसे में कौन सवाल करे कि  प्रेमिका को बाँहों में भरने वाले और युद्ध के मैदान में तलवार और ढाल लेकर उतरने वाले हाथों की बनावट में क्या कोई अन्तर होता है? या दोनों कर्मों को करने के लिए अलग-अलग हाथ बनाये या लगाये जाते हैं?
रतिक्रियाओं में लीन शरीर जब क्रोध की तासीर ग्रहण करता है तो वाणी में मधुरता के स्थान पर कटुता आ जाती है। आँखें ज्वालामुखी-सी सुलगने लगती हैं। हाथों की अँगुलियाँ, मुट्ठियाँ बन जाती हैं, चेहरा सौम्य की जगह कठोर हो जाता है। अर्थात् पूरे शरीर में प्रणय निवेदनके स्थान पर आक्रमण या उद्वेलनतांडव करने लगता है। अर्थ यह कि भाव-पक्ष के बदलते ही शिल्प-पक्ष तो अपने आप बदल जाता है। भाव-पक्ष के साथ शिल्प-पक्ष में आये इस बदलाव को ग़ज़लकार या ग़ज़ल फोबिया के शिकार ज्ञानप्रकाश विवेक जैसे साहित्यकार क्यों नहीं समझना चाहते?
     तेवरी ग़ज़ल की न कुर्ती है न पाजामी। न उसके कानों में कुन्डल है न पायल या नथ। न शरीर को निखारती साबुन की बट्टी है और न होटों को सँवारती लिपिस्टिक। न उरोजों को उभारता अधेवस्त्र है न रिझाने का कोई अस्त्र। न आँखों का महीन-महीन काजल है न कोई आँखों का ऐसा जंगल है जो राह से भटका देता है।
तेवरी तो ऐसे शरीर की साज-सँवार है, जिसके हाथों में तीर है, तलवार है। आँखों में धधकता हुआ अंगार है। कंधे पर लटकी हुई बन्दूक है। वक्षस्थल पर सुरक्षा कवच है। तेवरी अत्याचारियों से लड़ने का संकल्प है। इस संकल्प का नाम ग़ज़ल कैसे हो सकता है?
तेवरी और ग़ज़ल के इस अन्तर को जानकार तो यह स्वीकारते हैं कि-‘‘ ग़ज़ल और तेवरी का विवेचन चटपटा और तीखा है। नुकीली और धारदार रचनाएँ सड़े-गले अंगों को काट फैंकने जैसी शल्यक्रिया है।’’
|| शकुन्तला सिरोठिया, तेवरीपक्ष-जन.-मार्च.-87, पृ.41||
     ‘‘तेवरी के स्वतंत्र अस्तित्व/आन्दोलन पर पुर्नविचार के लिए बाध्य हुआ। सतीशराज पुष्करणा ने तेवरी को ग़ज़ल का ही एक रूप माना था। तब से मन में यही धारणा थी कि तेवरी को ग़ज़ल से अलग मानना मूर्खता है, पर आपके अकाट्य तर्क तेवरी को ग़ज़ल से अलग करते हैं।’’
|| डॉ. स्वर्ण किरण, तेवरीपक्ष-जन.मार्च-87, पृ.41 ||
      ‘‘ओजस्वी तेवरियां पढ़कर मन बरबस ही प्रशंसा करे को उत्सुक हो जाता है।ग़ज़ल एवं तेवरी में अन्तर स्पष्ट कर और तेवरी का परिभाषित कर स्तुत्य कार्य किया है।’’ 
|| चन्द्रपाल सिंह यादव मयंक’, तेवरीपक्ष, अप्रे.जून.89, पृ.11 ||
     ‘‘हिन्दी में नयी विधाओं के लिए सही वकालत की आवश्यकता रही है। आप तेवरी की तार्किक और प्रासंगिक वकालत कर रहे हैं।’’
|| डॉ. दयाकृष्ण विजय, तेवरीपक्ष-जन.-मार्च.-87,पृ. 41||
     ‘भूख, गरीबी, बेरोजगारी अन्याय के खिलाफ तेवरीकारों का  कलम उठाना प्रशंसनीय ही नहीं, पूज्यनीय कार्य है।’’
 +त्रिलोक शास्त्री, तेवरीपक्ष-जन. मार्च. 87, पृ. 42
     ‘‘ देश के कोने-कोने में व्याप्त भ्रष्टाचार-उन्मूलन हेतु अच्छी रचनाएँ प्रकाशित होनी ही चाहिए।’’ ;डा. दिनेश पाठक शशि’, तेवरीपक्ष-चार, पृ.4द्ध
     ‘‘तेवरी अब आपका नहीं, मेरा आंदोलन है।’’ +डा. सूरज पालीवाल, तेवरीपक्ष-प्रवेशांक, पृ. 3
     ‘‘तेवरी आंदोलन से जुड़े रहने की लालसा है| +विक्रम सोनी, तेवरीपक्ष-प्रवेशांक पृ.3
     ‘‘तेवरीपक्ष अपने धारदार तेवर लेकर आज की कुंठित मानसिकता पर प्रहार करने जा रही है। स्वागत है।
+विक्रम सोनी, तेवरी पक्ष-प्रवेशांक, पृ.3
     ‘‘वाकई आज हिन्दी साहित्य को तेवरी की आवश्यकता है।’’ +पंडित करनालवी, तेवरीपक्ष-प्रवेशांक, पृ.3
     ‘‘तेवरी-पक्ष के इस सृष्टा का हम अपने लौह-तेवरों के साथ अभिनंदन करते हैं।’’
+राजकुमार निजात, तेवरीपक्ष प्रवेशांक, पृ. 4
     ‘‘इसमें कोई संदेह नहीं, आप हिन्दी कविता को एक नया मोड़ देने में समर्थ हुए हैं।’’ +क्रांतिकारी मन्मथनाथ गुप्त, तेवरीपक्ष, जु.-दिस.- 84, पृ. 3
     ‘‘पत्रिका का तेवर देखकर प्रसन्नता हुई। मुझे लगा कि आप राष्ट्रीय कार्य के लिए प्रतिबद्ध हैं।’’ +कमलकिशोर गोयनका, तेवरीपक्ष, जु.-दिस. 84, पृ. 3
     ‘‘लुहार की सफलता में आखिरी चोट का ही महत्व नहीं होता, निशाना एक रहे, लगातार रहे। धारा के अनुकल तैरने में तेवर नहीं होता, कुव्यवस्था के प्रतिकूल तैरने में सार्थकता होती है।’’ +डॉ. राष्ट्रबन्धु , तेवरीपक्ष-जु. दि. 84, पृ.3
     ‘‘तेवरीपक्ष पढ़कर लगा कि मैं तो अन्जाने ही तेवरियाँ लिख रहा हूँ।
+कुन्दनसिंह सजल’, तेवरीपक्ष, जु.-दिस. 84, पृ.5
प्रत्येक मां अपनी सन्तान को साहसी देखना चाहती है। अत्याचार को सहन करना भी अपराध है।’’ +शकुन्तला सिरोठिया, तेवरीपक्ष- जु.दिस.-84, पृ.5
     ‘‘यदि यही तेवरी आन्दोलन विदेश से आया होता हो यहां के मूर्धन्य साहित्यकार आलोचना नहीं करते।’’ +सुहैल अख्तर, तेवरीपक्ष -जु.दिस. जु.दिस. 84, पृ.5
     ‘‘पूर्वज का घायल होना, युवाओं की मुट्ठी नहीं बँधवायेगा, तो वर्तमान नपुंसक कहलायेगा। कलम से उठी आग, लोहार की भट्टी की आग बने।’’
+मुकुट सक्सेना, तेवरीपक्ष-जु.-दिस. 84, पृ. 8
‘‘ तेवरी आदि से अन्त तक अलाव की आग की एक-सी तपिश लिए होती है।’’
+नीतीश्वर शर्मा नीरज , तेवरीपक्ष-जु.-सित. 89, पृ. 8
‘‘ हिन्दी ग़ज़ल मुझे भी कभी समझ नहीं आयी। उर्दू ग़ज़ल को हिन्दी में लाकर नये कवियों ने बहुत अहित किया है। इस विधा को तेवरी के रूप में ही यदि नया ढांचा देकर प्रतिष्ठित किया जाये तो हर्ज  नहीं।’’
+डॉ. रंजन जैदी, तेवरीपक्ष-जन.मार्च- 89, पृ. 3
तेवरी और ग़ज़ल के इस तुलनात्मक विवेचन/ विश्लेषण से यह तथ्य तो पूरी तरह साफ हो ही जाता है कि तेवरी की काया में भले ही कुछ लोगों को ग़ज़ल की माया के दर्शन होते हों लेकिन तेवरी इस कारण ग़ज़ल से अलग है  क्योंकि उसकी काया का हर अंग || शिल्प || आग की भाषा बोलता है, जबकि ग़ज़ल का शिल्प केवल प्रेमिका के जूड़े को बांधता और खोलता है।
ग़ज़ल के रदीफ-काफिये या शेर प्रेमी-प्रेमिका को रिझाने-मनाने, रति के लिये उकसाने के साधन हैं। जबकि तेवरी की तुकान्त, द्विपदिका या छन्द व्यवस्था लोहार के हथौड़े की वह चोट, या चोट का संगीत है जो लोहे को हथियार की शक्ल देता है।
तेवरी को इसलिए तेवरी मानना पड़ेगा क्योंकि इसकी वाणी में ईलू-ईलू की आवाज नहीं, इसकी आंखों से प्रेम के झरने नहीं झरते। तेवरी तो पुराण-पुरुष शिव की तीसरी आंख है।
‘‘पुराण-पुरुष की तीसरी आंख जब खुलती है तो किसी ज्वालामुखी की भांति तप्त लावा उगलती है। और पाप का प्रत्यूह तथा कामाचार का अवरोध जलकर राख हो जाता है। तेवरी के शब्द-संधान को देखकर ऐसा प्रतीत होने लगा है कि वर्तमान सामाजिक विसंगतियों और सामाजिक विद्रूपताओं में आग लगाने के लिए युवा आक्रोश की तीसरी आंख खुल गयी है।’’
+डॉ. रवीन्द्र भ्रमर, तेवरीपक्ष-जन.मार्च. 87, पृ. 23
तेवरी के बारे में आदित्य श्रीवास्तव का कहना है कि ‘‘परिस्थितियां दिन पर दिन बदतर होती जा रही हैं। चारों ओर वातावरण में घुटन, संत्रास, भ्रष्टाचार, अन्याय व्याप्त है। ऐसे में प्रेमालाप करना ठीक उसी भांति है, जिस प्रकार कोई अपनी झोंपड़ी में आग लगने पर मल्हार गाये। +तेवरीपक्ष- जन.मार्च.- 87, पृ. 18
“तेवरी के तेवर देखने-पढ़ने लायक हैं। गोया ये बदलते वक्त की तस्वीर हैं। तेवरी के तेवर कुछ ज्यादा ही तेज होने के कारण तेवरी का फार्म ग़ज़ल से बिलकुल अलग है।“
+श्रीराम मीना, तेवरीपक्ष- जन. मार्च- 87, पृ. 20द्ध
“वक्त की त्यौरी के साथ आदमी के तेवर भी बदल रहे हैं। ये तेवर यथार्थोन्मुखी होने के कारण खोखले आदर्शों की लहरों को चीर रहे है। ’’
+डॉ. निष्काम, तेवरीपक्ष-जन.-मार्च. 87, पृ. 21
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