तेवरी-आन्दोलन
के प्रथम तेवरी-संग्रह-
‘ अभी जुबां कटी नहीं ‘ की भूमिका
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रमेशराज
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आदि काल से शोषक वर्ग आम आदमी
को लूटता, आम की तरह
चूसता रहा है और यह शोषण का सिलसिला आज तक जारी है। शोषक वर्ग ने अपने को सुरक्षित
रखने, वर्ग
विस्तार
करने, अपना प्रभुत्व स्थापित करने,
सुविधाएँ ऐशोआराम भोगने,
सत्ता छिनने के खतरे से बचने,
बाजीगरों की तरह चालाकी के साथ जनता की जेबें कतरने,
अपने गोदामों को सोने-चाँदी
से भरने, आदमी को नपुंसक,
नाकारा, भाग्यवादी
बनाने तथा शोषण को स्थायित्व देने के लिये, आम
आदमी के खिलाफ एक षड्यन्त्र रचा, जिसका
नाम था कथित धर्म, जिसका नाम
था कथित ईश्वर।
इस षड्यन्त्र की नींव पड़ी
वैदिक काल में और फिर धीरे-धीरे साम्राज्यवादी शक्तियाँ अपना प्रभुत्व जमाती चली गयीं।
इस शक्तियों ने अपने को और ज्यादा शक्तिशाली बनाने के लिये कथित धर्मग्रन्थों का योजनाबद्ध
तरीके से सृजन कराया और उसे जनता को अफीम की तरह चटा दिया,
ताकि वह विचारलुंज, भाग्यवादी,
अन्धविश्वासी होकर, हाथ
पर हाथ रखकर सिर्फ अच्छे दिनों का इन्तजार करती रहे। पूर्वजन्म के पापों का प्रायाश्चित
करती रहे। दूसरी तरफ राजा महलों में सुरासुन्दरी का स्वाद चखते रहें। जनता की खून-पसीने
की कमाई खजाने में भरते रहें।
सम्राटों,
सामन्तों की काली करतूतों,
जनविरोधी नीतियों,
अय्याशियों, साजिशों
का पर्दापफाश न हो जाये, इसके लिये
उन्होंने तत्कालीन कवियों को राजाश्रय देकर भाटों में तब्दील कर दिया,
ताकि वे जनता के सामने सच्चाइयाँ न उगल कर सिर्फ ऐसे
साहित्य का सृजन करें, जिससे साम्राज्यवादी
शक्तियों को पुष्टिकरण मिले। कवियों की एक पूरी की पूरी जमात कुछ इसी तरह की साजिशों
में संलग्न रही। जिसके परिणाम स्वरूप आम आदमी ‘होगा
वही राम रचि राखा’, ‘सबहिं नचावत
राम गुंसाई’, ‘मेरे तो गिरिधर
गोपाल’ जैसे अन्धविश्वासों की अफीम
लगातार चाटता चला गया। पूर्वजन्म के पाप की धारणाएँ,
दैवीय मान्यताएँ शोषकों को शोषण के लिये खुली छूट देती
चली गयीं।
खैर..
यह बात थी उस समय के साहित्यकारों की। आधुनिक साहित्य
की भी लगभग यह स्थिति रही है। कुछेक अपवादों को छोड़कर आज भी साहित्यकार सरकार की जीहूजुरी
कर रहे हैं। इनाम पा रहे हैं। पुरस्कारों, उपाधियों
से अलंकृत हो रहे हैं,
पाठ्य-पुस्तकों
में स्थान पा रहे हैं और ऐसे साहित्य का सृजन कर रहे हैं,
जो जनघातक ही नहीं, जनहिंसक
भी है।
जब भी साहित्य सामाजिक संदर्भों,
हितों से हटकर या कटकर लिखा जाता है,
वह अधिकांशतः सामाजिक अहित ही नहीं करता,
सत्ताधारियों, जनविरोधियों
की काली करतूतों पर पर्दा भी डालता है। आज की तथाकथित महान कविता के प्रवृत्तकों में
चाहे छायावादी युगीन कवि हों या प्रतीकात्मक नयी कविता के जनक,
सब के सब सत्ता की थैली के चट्टे-बट्टे
रहे हैं, जिन्होंने साफगोई के खतरे न
उठाकर सिर्फ पदक बटोरे, जमूरों वाली
शैली अपनाकर सत्ता के बाजीगरों की जीहुजूरी की।
ऐसे साहित्य के साथ-साथ
हर युग में एक ऐसे साहित्य का भी सृजन हुआ जो जनहितकारी था। कुसत्ताद्रोही था,
जिसमें अभिव्यक्ति के खतरे उठाये गये थे। ‘कबीर’,
महाप्राण ‘निराला’,
धूमिल’, दिनकर,
‘नागार्जुन’ आदि-आदि
कुछ ऐसे नाम हैं, जिन्होंने
जनविरोधी शक्तियों के खिलाफ कान्ति की एक अमर मशाल जलाई। उसी मशाल को लेकर हम भी ‘तेवरी’
के माध्यम से शोषक, जनद्रोही
प्रवृत्तियों के खिलाफ एक आन्दोलन, एक
जनक्रान्ति, एक संघर्ष
की शुरूआत कर रहे हैं। शोषित, सर्वहारा
वर्ग के भीतर छुपी हुई विद्रोह की आग को तलाश रहे हैं। आदमी को आदमखोरों के विरुद्ध
खड़ा करने का प्रयास कर रहे हैं।
इस भूमिका को पढ़ते-पढ़ते
पाठक मन पर एक प्रश्न उभरना स्वाभाविक है-‘ आखिर
ये ‘तेवरी’
है क्या’? इसे
समझाने के लिये हम अपनी बात ग़ज़ल से शुरू कर रहे हैं। ग़ज़ल का अर्थ है-
‘प्रेमिका से प्रेमपूर्ण बातचीत’।
सामान्ती युग में राजा-महाराजाओं
को खुश करने के लिये उर्दू शायर ग़ज़लों में औरत के जिस्म की खूबियाँ बखान कर राजमहलों
में महफिलों की रौनक बढ़ाया करते थे, अशर्फियाँ
बटोरा करते थे। कुल मिलाकर ग़ज़ल एय्याशों के लिए एक मनोरन्जन का साधन थी। साथ ही शायरों
की रोजी-रोटी,
धन-दौलत
लूटने की एक चाटुकारी प्रवृत्ति। कहने का मतलब यह है,
इसका आम आदमी की समस्याओं,
सामाजिक यथार्थ या जनहित से कोई वास्ता नहीं था। इसी
कारण यह विधा नंगी जाँघों के जंगल में भटक कर रह गई,
जिसमें सुर्ख गालों पर चुटकियाँ थी। मख्मूर आँखों की
मदिरा थी, बाँहों के
झूले थे, शोखी थी,
नजाकत थी। कुल मिलाकर आदमी को पथभ्रष्ट करने का पूरा
साजो-सामान थी ग़ज़ल।
लेकिन उन्नीसवीं शताब्दी के
पूर्वार्ध में अंग्रेजों के भारतीयों पर अत्याचारों,
दमन, शोषण,
कुशासन ने ग़ज़ल के तेवर बदलने शुरू कर दिये और यही
से हुआ ‘तेवरी’
का जन्म, जिसने
अंग्रेजों के खिलाफ, एक संघर्ष,
एक इन्कलाब, एक
व्रिदोह, एक जनचेतना की शुरुआत की। क्रांतिकारी
‘रामप्रसाद बिस्मिल’
की कथित ग़ज़लें कुछ इसी प्रकार की थीं,
जिनसे तेवरीपन की एक बारूदी बू आती है-
‘सरफरोशी
की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना
है जोर कितना बाजू-ए-कातिल
में है।।
इसके बाद तेवरी अनेक हाथों
में पलकर बड़ी होती गई। स्व. दुष्यन्त
कुमार ने तो आपातकाल में तेवरी के सीने में तिलमिलाते विद्रोह के ज्वालामुखी भर दिये।
उसके हाथों में शब्दों के डाइनामाइट थमा दिये।
तेवरी जन्म के बाद लगातार जवान
तो होती गई, लेकिन हिन्दी
साहित्य का दुर्भाग्य यह रहा कि इसके नामकरण की आवश्यकता किसी भी कवि ने नहीं महसूसी।
पाँच-छह दशक गुमनामी की जीवन जीते-जीते
नवें दशक में इसका नामकरण हुआ ‘तेवरी’।
इस सदर्भ में डॉ. देवराज एवं डॉ. ऋभदेव शर्मा ‘देवराज’
का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय माना जा सकता है।
यह सत्य है कि तेवरी की जननी
ग़ज़ल है और इसी कारण इसके बहुत से गुण जैसे छन्द, शिल्प
आदि बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं।
लेकिन यदि सन्तान को भी माँ के नाम से पुकारा जाये, यह
कहाँ तक उचित है? या हम अपनी
बात यूँ स्पष्ट करें, यदि एक विषभरी
शीशी को खाली करके उसमें अमृत भर दिया जाये, मगर
उसके ऊपर से विष का लेबल न छुड़ाया जाये, ऐसे
में क्या लोग इस अमृत को अमृत का मानसिकता के साथ गले उतार सकेंगे?
क्या उन्हें अमृत भी जहर नहीं दिखाई देगा?
उत्तर स्पष्ट है-‘हां’।
कुछ इसी तरह की दुर्गति ग़ज़ल के साथ जुड़ी हुई है। इसी कारण ग़ज़ल और तेवरी की स्पष्ट
व अलग-अलग पहचान कराना नितान्त आवश्यक
हो गया है।
तेवरी जिस जमीन पर पैदा हुयी,
खड़ी हुयी, बड़ी
हुयी-वह खुरदरी,
पथरीली, कँटीली,
विषमताओं, संत्रास,
शोषण, घुटन,
कुंठाओं की त्रासद पगडंडियों से भरी हुयी है,
जहाँ पक्षियों का शोर सुनायी नहीं देता,
नदियाँ कल-कल
नहीं करतीं। फूल नहीं खिलते। वसन्त नहीं आता | बल्कि आदमी को खाकी बर्दियाँ बूटों से
कुचलती हैं, टोपियाँ माँ-बहिनों
की इज्जत पर डाके डालती हैं। बन्दूकें आग उगलती हैं। मजदूर का शोषण होता है। शोषक तोदें
फुलाते हैं। मूछों पर ताव देते हैं। सुविधा के नाम पर आदमी की आँतों में भूख की आरी
चलती है। तस्करी, राहजनी,
लूटा-खसोटी
होती है। पर सत्ता के कान पर ऐसी खबरों की जूँ तक नहीं रेंगती। बल्कि विधायक, सांसद
स्वयं डकैतों, भ्रष्टाचारियों
को संरक्षण देते हैं। वसंत के नाम पर झूठे वादों की नागफनी के जंगल में भरमाते हैं।
खुशबू के नाम पर सडाँध दे जाते हैं।
तेवरी इस जमीन पर खड़ी होकर
आदमी के खिलाफ हो रही साजिशों से आँखें नहीं मूँदती। यातनाओं,
अत्याचारों, त्रासदियों,
हादसों से भरे रास्तों से कतरा कर नहीं चलती। बल्कि
वह जंगलों को काटती-छाँटती हुयी
आगे बढ़ती है। शोषक प्रवृत्तियों के खिलाफ जनचेतना लाती है। संघर्ष की बात कहती है।
देखा जाये तो तेवरी आदमी की जि़न्दगी में घुली तल्खियत का एक ऐसा ब्यौरा है,
जो पढ़ने या सुनने के बाद विचार और चिंतन के ऐसे बिन्दु
पर ले जाता है, जहाँ से साजिशियों
के खिलाफ आक्रोश की कुल्हाडि़याँ उछालना आवश्यक हो जाता है।
जबकि ग़ज़ल आरम्भ से लेकर अब
तक मात्र एय्यायाशों, सामन्तों
को खुश या पुष्ट करती रही है। अपना खूबसूरत जिस्म दिखाकर रिझाती रही है। काँच की हवेलियों
में पायल खनकाती रही है। उसने कभी भी फुटपाथ पर झौंपड़ी की जि़न्दगी की तरफ झाँककर
नहीं देखा और अगर वहाँ आयी भी है तो नंगी जाँघों का भूगोल पढ़ा गयी है। यही वजह है,
तेवरी अपनी माँ ग़ज़ल से व्यवहार से लेकर चालचलन तक
एक दम भिन्न है। उसके एक-एक शब्द में
चाकू जैसी मार है। अन्धविश्वासों, सामाजिक
विसंगतियों, विकृतियों,
रूढि़यों, कुआस्था,
गन्दी राजनीतिक चालों के खिलाफ आक्रोश है,
विद्रोह है, आक्रामकता
है, बारुद जैसा विस्पफोटक है,
ब्लैड जैसी धार है, जो
तन मन को आन्दोलित करती चली जाती है।
तेवरी गुस्सैल,
आक्रामक, जुझारू,
संघर्षशील अवश्य है, लेकिन
वह अनुशासनप्रिय है और ऐसा कोई रास्ता अख्तियार नहीं करती,
जो गलत हो, भ्रामक
हो, विध्वंसक हो। तेवरी व्यर्थ
का रक्तपात भी नहीं चाहती है। वह आदमी के लिये सुख-सुविधा
माँगती है। जर्द चेहरों की खुशहाली चाहती है, भूखे
को रोटी की माँग करती है, ठन्डाये चूल्हे
को आग, दाल-भात
माँगती है। लेकिन इसके लिये सरकारी सम्पत्ति का विनाश नहीं करवाना चाहती,
बसें नहीं तुड़वाना चाहती। तेवरी लड़ाई तो लड़ती है,
क्रान्ति तो करती है लेकिन हक की,
शांति की, अहिंसा
की। वह गुस्से को सार्थक सृजन में लगाती है, आदमी
को आदमी बनाती है।
आज जबकि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र
में एक भयंकर उथल-पुथल शुरू
हो गयी है। शोषक और शोषित का एक तीखा वर्गसंघर्ष संक्रामक रोग की तरह पनप रहा है,
स्थापितों और विस्थापितों के राजनीतिक हथकंडे आदमी को
एक तल्खियत से सराबोर कर रहे हैं। आदमी कुंठा, घुटन,
संत्रास उत्पीड़न से पनपे आक्रोश को अपने भीतर कोढ़-सा
महसूस रहा है। एक सडाँधभरी व्यवस्था में हम सब जिये चले जा रहे हैं। एक दिशाहीनता हम
सब पर हावी होती चली जा रही है। नैतिक, सामाजिक,
राजनीतिक, आर्थिक
मूल्य टूट रहे हैं। आदमी को पूर्वजों से विरासत में मिले धार्मिक अंधविश्वास धर्म के
ठेकेदारों के लिये शोषण, तस्करी,
लूटाखसोटी के साधन बने हुये हैं। ईश्वर के नाम पर चकले
चल रहे हैं। भ्रष्टाचार हो रहा है। शासक जनद्रोही हो गये हैं। समाजवाद की अच्छीखासी
घोषणाओं के बावजूद आज़ादी के इन विगत सालों में समाजवाद न आ सका,
जन खुशहाली न आ सकी। आजादी का अर्थ सिर्फ नौकरशाहों,
भ्रष्टाचारियों, नेताओं
के टुच्चे भाषण देने, जनता का पैसा
डकारने, जनविरोधी विधेयक लाने,
साम्प्रदायिक दंगे भड़काने,
पुलिस द्वारा महिलाओं की इज्जत लूटने-लुटवाने,
लाठीचार्ज कराने, तस्करी
करने, गरीबी उन्मूलन के नारे देकर
पूंजीवाद को बढ़ावा देने, कालाधन कमाने
और कमवाने की आज़ादी बनकर रह गया, जिससे
न सिर्फ सामाजिक मूल्य टूटे हैं, बल्कि
वीभत्स-घिनौने होते चले गये। स्वार्थों
के कुंड में स्वाहा होते चले गये। आदमी, आदमी
न रहकर शैतान बन गया। ऐसे में प्रस्तुत संग्रह ‘अभी
जुबां कटी नहीं’ के तेवरीकारों
की तेवरियाँ जनविरोधी प्रवृत्तियों को बेनकाब ही नहीं करेंगी,
उन्हें चौराहे पर घसीट कर उनकी असलियत भी खोलेंगी,
साथ ही पाठकवर्ग को उनकी त्रासद स्थितियों से साक्षात्कार
कराते हुये किसी हल की ओर मोड़ेंगी, ऐसा
विश्वास है।
[ तेवरी-संग्रह
‘अभी जुबां कटी नहीं’
की भूमिका ]
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रमेशराज,
15/109, ईसानगर, अलीगढ-202001
मो.-9634551630
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