तेवरी-आन्दोलन
के दूसरे तेवरी-संग्रह-
‘ इतिहास घायल है ‘ की भूमिका
+रमेशराज
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यदि सामाजिक-परिवर्तन
या घटनाक्रम को यथार्थवादी दृष्टिकोणों से जोड़कर मूल्यांकित किया जाये तो इतिहास के
उस नेपथ्य की भी जानकारी होने लगती है, जहाँ
जन-सेवी या समाजवादी व्यक्तित्व
बदसूरत ही नहीं लगते, बल्कि एक
ऐसे कुकृत्य में लिप्त पाये जाते हैं, जिसे
जन-द्रोहिता कहा जाता है। इस संदर्भ
में यदि हम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम और उसके बाद के इतिहास के नेपथ्य का अवलोकन
करें तो पायेंगे कि अराजकता, शोषण और अन्याय
के विरुद्ध आवाज उठाने वाले ही अनेक व्यक्तियों
ने नेपथ्य से आम आदमी की पीठ में एक ऐसा छुरा घोंपा,
जो दिखायी तो नहीं दिया किन्तु उसकी मार इतनी तीखी और
विशाल थी कि उससे अप्रभावित हुए बिना कोई भी नहीं रह सका। शान्ति और अहिंसा के पुजारियों
ने समूची मानवता की हिंसा की।
कमाल तो यह है कि नेपथ्य के
षड्यंत्रकारी जब मंच पर हावी हुए तो उन्होंने मंच से सही और ईमानदार नेतृत्वकर्ताओं
को धक्का ही नहीं दिया बल्कि उन्हें एक ऐसी स्थिति में लाकर पटक दिया जहाँ से उनकी
आवाज एक पागलपन समझी जाने लगी। ऐसी त्रासद स्थितियाँ हमारे उन क्रान्तिकारियों ने भोगीं
जो सच्चे अर्थों में जनता के हितैषी थे। ऐसे लोगों को उग्रवादी करार देने वाले वही
लोग थे जो अंग्रेजों और भारतीय पूँजीपतियों के बीच दलालों की भूमिका निभा रहे थे। उसी
दलाली के फलस्वरूप भारत में स्वतन्त्रता आम वर्ग को न मिलकर एक ऐसे वर्ग को मिली जिसका
उद्देश्य शान्ति और अहिंसा के थोथे नारों के बल पर सत्ता हथियाना ही नहीं बल्कि जन
सामान्य के मुँह का दाना और तन का कपड़ा छीनकर चन्द लोगों की सुख-सुविधा का साधन बनाना था। देश को एक ऐसी अराजक और भ्रष्ट
अवस्था में ले जाना था, जिसमें खास
वर्ग की तरह सामान्य वर्ग का भी इतना चारित्रिक पतन हो जाये कि कोई किसी पर अँगुली
न उठा सके। ‘चोर-चोर
मौसेरे भाई’ की परम्परा
स्वतन्त्रता के बाद जन-सामान्य में
इतनी फली-फूली कि शोषक
और शोषित में अन्तर करना उतना ही मुश्किल हो गया है जितना कि इतिहास के नेपथ्य को समझना।
भारतीय स्वतन्त्रता के बाद
जिन नेताओं ने भारत का नेतृत्व सम्हाला, उन्होंने
लोकतन्त्र का इस्तेमाल लोकहित में न करके, सत्ता
और नौकरशाही प्रवृत्तियों के नरभझी पौधों को
पालने-पोसने में किया। परिणामस्वरूप
समूची तंत्र-व्यवस्था
शोषक, आदमखोर,
अत्याचारी होती चली गयी।
शासक वर्ग ने सत्ता-स्थायित्व,
अहंतुष्टि और कोरी वाहवाही लूटने के लिये ऐसे हथकन्डे
अपनाने शुरू किये जो आम जनता को असहाय, पीडि़त
और दरिद्र बनाने के साथ-साथ चरित्रहीनता
की ओर धकेलते चले गये। सुविधा और विलासता की
ललक के शिकार लोग अपनी स्वार्थ-पूति
के लिये देश के साथ साम्प्रदायिकता, अलगाव,
तस्करी, डकैती,
बलात्कार, संगठित
विद्रोह और भ्रष्टता की बेहूदी भूमिका निभाने लगे। उनकी इन करतूतों पर कोई उँगली न
उठा सके, इसके लिये उन्होंने गांधीवाद
का सहारा लिया। भारत के इतिहास में जिस तरह के व्यभिचार की जडे़ं धर्म के नाम पर पनपीं, ठीक
उसी तरह का व्यभिचार गांधी के नाम पर विकसित हुआ।
शाषक वर्ग ने शिक्षा की उन्नति
से धार्मिक अन्ध विश्वासों के पतन को देखते हुए जनता की मानसिकता को पुनः लुंज और गुमराह
करने के लिये अपरोक्ष रूप से हिंसा और सेक्स प्रधान फिल्मों तथा घटिया उपन्यासों और
अपराध् कथाओं को बढ़ावा इसलिये दिया ताकि आदमी सत्ता की करतूतों पर केन्द्रित होकर
व्यवस्था परिवर्तन की माँग की रट लगाने के बजाय समाज के उन अंगों पर ही प्रहार करे
जो उसके अपने हैं, क्योंकि शासक
वर्ग को आजादी के बाद सबसे बड़ा खतरा जन-समर्थक
पत्रकारिता और साहित्य से ही दिखाई दिया, जो
गलत राजनीति की ओर संकेत-भर ही नहीं,
बल्कि समाजवादी मान्यताओं को स्थापित करने के लिये एक
संकल्प भी था, या है।
जनसमर्थक साहित्य के समानान्तर
अश्लील साहित्य को स्थापित करने की साजिश के परिणामस्वरूप सामाजिक मूल्य और लगाव में
कमी ही नहीं आयी बल्कि सेक्स, हिंसा,
बलात्कार, व्यभिचार
की घटनाओं में बढ़ोत्तरी होने लगी। समाज ‘सोच’
के धरातल पर अपने स्वार्थों की अंधी दौड़ में एक दूसरे
को टंगी मारकर आगे बढ़ने लगा। दूसरी तरफ सत्ता का अपराधीकरण इसलिये किया गया ताकि गुण्डा-संस्कृति
के बल पर आतंक और भय फैलाकर सत्ता को सुरक्षित रखा जा सके। कुल मिलाकर आज हमारा देश
इस स्थिति में आ पहुँचा है कि गुण्डा-संस्कृति
के बीच न तो जनता सुरक्षित है और न कोई राजनेता।
ऐसे में प्रस्तुत तेवरी संग्रह
‘इतिहास घायल है’
यदि शासक वर्ग के नेपथ्य को नंगा करने तथा समाजघाती
तिलिस्मों को तोड़ने में थोड़ा बहुत भी सहायक होता है तो निस्संदेह यह हमारी उन मान्यताओं
की सफलता रहेगी जो अन्ततः मानवीय मूल्यों से जुड़ती है।
[
‘इतिहास घायल है’
तेवरी-संग्रह
की भूमिका ]
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रमेशराज,
15/109, ईसानगर, अलीगढ-202001
मो.-9634551630
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