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16 फ़रवरी 2017

हिन्दी ग़ज़ल के कथ्य का सत्य [भाग-2 ] +रमेशराज




हिन्दी ग़ज़ल के कथ्य का सत्य  [भाग-2 ]

+रमेशराज
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            प्रेमिका के आगमन की प्रतीक्षा में आँखों को दीप-सा जलाये रखना और इन्हीं दीप-सी जलती हुई प्रतीक्षारत आँखों से वर्ग-संघर्ष को उभारना, अँधेरे से उल्लू [शोषक] के तीर मारना है। यह कैसे होता है, एक ग़ज़ल के शे प्रस्तुत हैं-
जलें निरंतर राह में इन आँखों के दीप, कब आओगे तुम मेरे दिल में रखने दीप।
तरसें दिवले गार के यूँ गरीब के द्वार, तेल समूचा पी गये कुछ सोने के दीप।
[पुरुषोत्तम यकीन’, तुलसी प्रभा सित.200 पृ.47]
            निकृष्ट तुकों के साथ कही गयी यकीनजीकी उपरोक्त हिन्दी ग़ज़ल के दो शेरों में आँखों के’, ‘सोने के’-दो दीपक जल रहे हैं। दोनों दीपकों के प्रकाश की चकाचौंध के बीच शोषण का जाप प्रेमालाप के साथ है। यह उजाले भरा वैचारिक माहौल है या उसका मखौल है?
व्यवस्था को ललकारने और प्रेमिका को पुचकारने की क्रिया एक साथ हो तो उमर खय्याम और सुकरात के जहर भरे प्याले को एक ही खाने में फिट किया जा सकता है। और कहीं हो अथवा हो, हिन्दी ग़ज़ल में यह फार्मूला हिट किया जा सकता है, देखिये- 
कभी बने सुकरात कभी हम बने उमर खय्याम,
लेकिन बुझी प्यास, हो गयी यद्यपि उम्र तमाम।
[आलोक यादव, ग़ज़ल से ग़ज़ल तक, पृ.35]
            ये कैसी एक जैसी प्यास है, जो सुकरात और उमर खय्याम का आकलन समान तरीके से कर रही है और तमाम उम्र ग़ज़लकार को सताती है? क्या ऐसे ही हिन्दी ग़ज़ल कही जाती है?
वक्त आया तो तेरे दिल की ग़ज़ल कह जाऊँगा
एक दिन तुझसे मैं मंजिल की ग़ज़ल कह जाऊँगा।
यूँ ही गर हिंसा की बातें आप करते ही रहे
एक ही नुक्ते में मकतल की ग़ज़ल कह जाऊँ \गा।
डॉ. राजकुमार निजात, ग़ज़ल से ग़ज़ल तक, पृ. 94
            एक अन्य हिंदीग़ज़लकार अशोक आलोक के तेवरों में भी वही वैचारिक स्खलन है। हिन्दी के अन्य ग़ज़लकारों की तरह वे पहले तो इन्कलाब की आग उगलते हैं और फिर दूसरे पल उसी देहभोग की ओर जाने वाली प्रेम की पगडंडी पर चलते हैं-
इन्क़लाबी आग जलने दीजिए, भावनाओं से निकलने दीजिए।
रात के आँचल में टाँकेगा हँसी, चाँद आँगन में उतरने दीजिए।
[तुलसी प्रभा, सित. 2000पृ. 32]
आलोकजी की ग़ज़ल के उपरोक्त मतलामें जलनेकी तुक निकलनेसे मिलाने के बाद अगले शे में तुक के रूप में उतरनेका अशुद्ध प्रयोग यदि हिन्दी ग़ज़ल के कथ्य को व्यापक बनाने में सहायता दे सकता है??
आकाशकी तुक विश्वाससे मिलाकर ग़ज़लकार प्रेम किरण भी हिन्दी ग़ज़ल की बहर को नदी के पास सकते हैं। मोर की तरह पंख फैलाकर नृत्य कर सकते हैं। वे शब्दों को कैसे थिरकाते हैं और क्या बताते हैं आइए देखें-
कथ्य का व्यापक खुला आकाश रखती है ग़ज़ल
दर्द के अनुवाद में विश्वास रखती है ग़ज़ल।
शब्द में हैं इक थिरकते मोर की-सी मस्तियाँ
बहर को बहती नदी के पास रखती है ग़ज़ल। [प्रेमकिरण, तुलसीप्रभा, सित.2000, पृ. 48] ग़ज़ल के उक्त दो शेरों के कथन से जाहिर है कि बहर की बहती नदी के पास जो मोर की मस्तियाँ है, उसमें मोरनी से वियोग का रोग भी है जो दर्द के अनुवाद में विश्वास रखता है, क्या यही हिंदी ग़ज़ल के खुले आकाश जैसे कथ्य की व्यापकता है?
हर सिम्त इन्कलाब की होली जलाने के लिये भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजादहो जाना पड़ता है। बर्बर और अत्याचारी वर्ग की यातनाओं को सहना पड़ता है। त्याग-तपस्या और बलिदान के इम्तिहान से गुजरना पड़ता है। लेकिन हिन्दी ग़ज़ल के ऐसे वीरों को क्या कहेंगे जो मासूक की बिन्दास अदाओं पर रीझते हुए पूरी की पूरी कायनात को सुर्ख अलावों की तरह दहकाने का छ्दम प्रयोग कर रहे हैं-
मेरे यारो! मेरी किस्मत का मिजाज मत पूछो,
वो हैं मासूक की बिन्दास अदाओं की तरह,
हर सिम्त इन्कलाब की होली जलानी है मुझे,
कायनात दहक उठेगा रे सुर्ख अलावों की तरह।
[सागर मीरजापुरी, ग़ज़ल से ग़ज़ल तक, पृ. 121]
हिन्दी ग़ज़ल विशेषांकों की परम्परा को सौगातके सम्पादक-श्याम अंकुर ने भी आगे बढ़ाया है। सौगात-अप्रैल-2009 के रूप में ग़ज़ल विशेषांक हमारे सामने आया है। इस अंक के माध्यम से डॉ. प्रभा दीक्षित आधुनिक हिन्दी ग़ज़ल में जनवादी तेवर की तलाश करती हैं और कहती हैं-‘‘तबाही की भूमिका आज़ाद भारत में प्रारम्भ से ही बनना शुरु हो गयी थी। अच्छा कवि या शायर मात्रा कल्पना-लोक का ही वासी नहीं होता, उसके अपने सामाजिक सरोकार होते हैं, जिनके द्वारा उसे साहित्य-सृजन की प्रेरणा प्राप्त होती है।
डॉ. प्रभा दीक्षित के अनुसार --1955 में एक फैक्ट्री में काम करने वाले जनकवि श्रमिक ने आमजन की आवाज में चीखते हुए कहा- 'ग़ज़ल कोठे से उतर कर आगयी फुटपाथ में, पाँव में घुँघरू नहीं/ पत्थर लिये है हाथ में।'
जनकवि श्रमिक के उपरोक्त शे में जो बात कही है, उसमें ग़ज़ल को कोठे पर बैठने वाली बताया गया है। इस कोठे पर बैठने वाली के अब पाँव में घुँघरू नहीं है। वह फुटपाथ पर नहीं, फुटपाथ में है और हाथ में पत्थर लिये है। कोठे पर बैठने वाली के साथ ऐसा क्या हुआ जो इस दशा में गयी है? क्या कोठे की संचालिका ने उसे किसी बात पर कोठे से बाहर धकेल दिया है या उसकी देह के ग्राहक ने उसे ठग लिया है! कोठे वाली हाथ में पत्थर क्यों लिए है? फुटपाथ पर आकर हाथ में पत्थर थामे यह कोठे वाली क्या अब कोठे वाली अर्थात् ग़ज़ल नहीं पुकारी जाएगी? वह क्या कहलायेंगे? इस सवाल पर हर हिन्दी ग़ज़लकार चुप क्यों है?
रोशनी की बात करने वालों के मन में इस बात को लेकर अंधेरा घुप क्यों है? ग़ज़ल के जनवादी तेवरों की महिमा का बखान करने वाले हिन्दी ग़ज़लकारों की सच्चाई यही है कि वे ग़ज़ल को जिस कोठे से उठाने या हटाने का जनवादी दम्भ भरते हैं, उसे उसी कोठे पर बिठाकर उसके अधरों का रसपान भी करते हैं।  
इस तथ्य के सत्य को पुष्ट करना हो तो डॉ प्रभा दीक्षित की ही सौगातके इसी अंक में प्रकाशित ग़ज़ल को पृ. 17 पर देखा जा सकता है, जहाँ समन्दर नदी के बाल सहला रहा है। मोहब्बत का मिजाज समझाने के लिए किसी का ख्वाब आँखों में रहा है-
'खुशनुमा मंजर था मौसम झूमकर गाने लगा,
जब समंदर खुद नदी के बाल सहलाने लगा।
हमने काफी देर से समझा मोहब्बत का मिजाज,
जब किसी का ख्वाब मेरी आँख में आने लगा।'
अस्तु! इस सबके बावजूद-‘मैं तुझमें मिलने आयी मंदिर जाने के बहानेको चरितार्थ करती आज की हिन्दीग़ज़ल के कथ्य में यह तो नहीं कहा जा सकता कि मर्म को स्पर्श करने वाली जीवंत बिम्बात्मकता, नूतन प्रयोगधर्मिता, अनूठी अर्थवत्ता, मौलिक प्रतीकात्मकता, सहजता सरलता, या तरलता का अभाव है,
कथ्य के विरोधभास, विषयवस्तु के गड्डमड्ड चयन, अन्तविरोधों  के उन्नयन ने ग़ज़ल को तो प्रणय, अभिसार, प्रेमालाप का शुद्ध साधन रहने दिया है, और ये सामाजिक परिवर्तन की अग्निलय बन पायी है। आत्मालाप, व्यक्तिवाद और सामाजिक क्रान्ति के बीच त्रिशंकु की तरह लटकी हिन्दी ग़ज़ल फिलहाल तो उस शिखण्डी के समान है जो युद्ध के मैदान में अर्जुन के साथ डटा है, तालियाँ बजा रहा है, शोषण, अत्याचार, अनीति की रीति के विरुद्ध लड़े जा रहे महाभारत का आनंद अँगुलियाँ चटकाते हुए ले रहा है।
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-रमेशराज, ईसा नगर निकट थाना सासनी गेट , अलीगढ २०२००१
मो. ०९६३४५५१६३०


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