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21 फ़रवरी 2017

हिंदीग़ज़ल की गटर-गंगा +रमेशराज







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हिंदीग़ज़ल की गटर-गंगा

+रमेशराज
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श्री यादराम शर्मा हिन्दी में ग़ज़ल के चर्चित हस्ताक्षर हैं। उनका कहकहों में सिसकियांनाम से ग़ज़ल संग्रह भी प्रकाशित हुआ है। वे अपने इस संकलन में जैसा मैंने पढ़ाभूमिका के अन्तर्गत ग़ज़ल के शिल्प पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि-‘‘ग़ज़ल की बह्र पर विशेष ध्यान दिया जाये। इसके अतिरिक्त अन्य बिन्दुओं पर भी ध्यान देना जरूरी है-जैसे मतला, मक्ता, शे, रदीफ एवं काफिया।’’ 
   रदीफ और काफियों को वे ग़ज़ल की प्राणवायु बताते हुए कहते हैं-‘‘यह जानना आवश्यक होता है कि रदीफ पूरी ग़ज़ल में एक ही रहता है। काफिया, तुकान्त का प्रतीक होता है, यह स्वरांत भी हो सकता है जैसे हवाके साथ लगाऔर हुआया गयीके साथ सदी’, ‘सगीऔर सभीआदि।
   श्री यादराम शर्मा की कही हुई बात को ही यदि थोड़ा-सा विस्तार दें तो अगर रदीफ पूरी ग़ज़ल में बदलता नहीं है तो काफिये का समान स्वर में आये बदलाव के आधार पर ही  निर्धारण या निर्वाह करते हैं। की तुक या की तुक या से किसी भी प्रकार नहीं मिला सकते। काफिया तभी काफिया है, जबकि वह समान स्वर के आधार पर निरंतर बदलाव का संकेत दे। ग़ज़ल के मतला शेर से ही यह निर्धारित किया जाता है कि स्वर के बदलाव का आधार किस स्थान पर या किस प्रकार किया जाये। मतला में यदि नदीकी तुक सदीसे मिलायी गयी है तो दीदोनों में समान होने के कारण और बदलाव के आधार बनेंगे, अतः आगे की तुक बदीया लदीआदि ही हो सकती हैं। इन तुकों के स्थान पर अगर कोई ग़ज़लकार सभी’, ‘रखी’, ‘बचीआदि तुकों का प्रयोग करता है तो हर प्रकार अशुद्ध  हैं। यदि मतला सदीकी तुक सभीसे मिलाकर कहा गया है तो ग़ज़ल के आगे के शेरों के क़ाफिये बची’, ‘बानगी’ ‘रोशनी’, ‘जी’, ‘चलीआदि के साथ हर प्रकार शुद्ध होंगे। लेकिन इसमें ध्यान देने की बात यह है कि मतला में आयी सदीऔर सभीतुकें आगे के शेरों में सभी’, सदी, ‘नदी’ ‘कभीआदि के रूप में नहीं आ सकतीं, वर्ना स्वर बदलने के आधार ही खत्म हो जायेंगे। अतः एक तुक का एक बार निर्वाह करने के बाद उसी तुक का दूसरी बार प्रयोग में लाना भी त्रुटिपूर्ण है। संयुक्त रदीफ-काफियों की ग़ज़ल के अन्तर्गत यदि मतला में कहांकी तुक जहांहै तो धुआं’, ‘निशां’, ‘बयांआदि तुकें आगे के शेरों में किसी प्रकार सम्भव नहीं। ऐसी ग़ज़ल में सिर्फ हांको तुक के रूप में प्रयोग करना, इस बात का संकेत है कि कवि ने इस ग़ज़ल से रदीफ़ को ही ग़ायब कर डाला है। ऐसी रचना ग़ज़ल नहीं कही जा सकती।
   ग़ज़ल कहने या लिखने के लिये ग़ज़ल के शास्त्रीय  सरोकारों, मूल स्त्रोतों, नियमों-उपनियमों अर्थात् ग़ज़ल की शिल्प सम्बन्धी  व्यवस्था में रद्दो-बदल करने की छूट किसी भी रचनाकार को नहीं है। ग़ज़ल कहने का अर्थ ही यह है कि ग़ज़ल की मूल संरचना की पकड़ की जाये। जैसे दोहे की दोनों पंक्तियों में 24-24 मात्राएं होती हैं और इन पंक्तियों के अन्त में दीर्घके बाद लघु स्वरआता है। इन पंक्तियों से 24-24 मात्राओं की संख्या घटा या बढ़ा दी जाये अथवा अन्त के [ दीर्घ के बाद लघु स्वर ] क्रम को बदल दिया जाये तो दोहा, दोहा नहीं रहता, ठीक इसी प्रकार ग़ज़ल अपनी छन्द सम्बन्धी संरचना की मूलभूत विशेषताओं से कटकर, अपने ग़ज़लपन को खो देती है। अतः ग़ज़ल के छन्द में मात्राएँ बढ़ाकर और उन्हें गिराकर पढ़ने या लिखने का आधुनिक तरीका भले ही मान्य होता जा रहा है लेकिन यह तरीका हर प्रकार त्रुटिपूर्ण होने के साथ-साथ इस बात का भी संकेत देता है कि एक छंद में दूसरे छंद का द्वंद्व अन्तर्निहित है।
   आजकल हिन्दी में ग़ज़ल लिखने का चलन, फैशन की तरह रचनाकारों पर सवार है। जिसे देखो, उसे ही ग़ज़ल का बुखार है। ग़ज़ल के शिल्प की हत्या करते हुए ग़ज़ल लिखने का अन्दाज आज कोढ़ में खाज पैदा कर रहा है। जिन लोगों को ग़ज़ल कहते समय ग़ज़ल के शास्त्रीय सरोकारों का निर्वाह करने में कठिनाई हो रही है, वे इसे सरल बनाने के हास्यास्पद तरीके गिना रहे हैं और गर्व से बता रहे हैं कि-‘‘ग़ज़ल में मतला और मक्ता के प्रयोग, शेर की स्वतंत्रता, रुमानी कथ्य, सीमित बह्र और गेयता का निषेध होना चाहिए।’’
अर्थ यह कि ग़ज़ल और हिन्दीग़ज़ल में कुछ तो भेद होना ही चाहिए। यह सब बातें प्रसंगवशपत्रिका के हिन्दीग़ज़ल विशेषांक 1994 में साक्ष्य के रूप में मौजूद हैं। ग़ज़ल से हिन्दी ग़ज़ल में भेद करने की यह लालसा ग़ज़ल के शिल्प में कितने छेद करेगी, इसकी चिन्ता न करते हुए और हिन्दी ग़ज़लकारों में नया जोश भरते हुए श्री महेश अनघ समझाते हैं कि-‘‘कथ्य की विभिन्नता रहते कभी-कभी ऐसी स्थिति आ जाती है कि एक शेर के कथ्य को दूसरा शेर काट देता है, अतः जरूरी यह है कि एक पूरी ग़ज़ल में जिस कथ्य को उठाया जाय, अन्त तक उसका निर्वाह किया जाये।’’
   तेवरी को अपरिपक्वता का जामा पहनाने वाले श्री महेश अनघ जैसे रचनाकार इस प्रकार ग़ज़ल के ग़ज़लपन की हत्या कर, ग़ज़ल को कौन-सा परिपक्वता का जामा पहना रहे हैं, यह बात सहज तरीके से व्याख्यायित की जाये तो इतनी भर है कि हिन्दी में ग़ज़ल के नियमों से इसलिये छूट ली जा रही है ताकि ग़ज़ल की गटर-गंगा को भी महिमा-मंडित किया जाये। हिन्दी में औसत ग़ज़ल-विशेषांकों से प्रसंगवशका यह हिन्दी ग़ज़ल विशेषांक भले ही सारगर्भित है और इसकी उपादेयता को नकारा नहीं जा सकता है। लेकिन हिन्दी में ग़ज़ल के नियमों से छूट लेने की लूट भी इसमें दृष्टिगोचर होती है। इस अंक में शेरजंग गर्ग रूठे’, ‘झूठे’, ‘अंगूठेकी तुक सीना ठोक कर फूटेही नहीं मूठेंसे भी मिलाते हैं और इस प्रकार हिन्दी ग़ज़लकार कहलाते हैं।
   पद्मश्री गोपालदास नीरजख्याति प्राप्त गीतकार, होशियार और समझदार रचनाकार हैं, उनके हिस्से में सरकारी पुरस्कार हैं। अतः वह मतला में चलायाकी तुक बनायासे मिलाने के बाद बुलायाऔर फिर बुलायाजैसी स्वर पर ही आघात करने वाली तुकों को अमल में लायें तो उन्हें टोक कौन सकता है? रोक कौन सकता है?
   प्रसिद्ध आलोचक डॉ. रामदरश मिश्र हिन्दी साहित्य के प्रकाशवान नक्षत्र हैं। उनके मौलिक लेखन-कर्म के चर्चे सर्वत्र हैं। श्री वशिष्ठ अनूप इस विशेषांक के पृ. 66 पर मिश्रजी की तारीफ करते हुए कहते हैं कि-‘‘ इन शेरों में परिवर्तन की चिन्गारी हैपरोपकार की भावना भी और एक अच्छे इन्सान की ख्वाहिशें भी।’’
लेकिन उनके द्वारा उद्घृत ग़ज़ल में हवाकी तुक छुवा’, ‘नवा’, ‘गंवाके बाद दुआतक पहुँचते-पहुँचते इस कदर स्वाराघात करने लगती है कि ग़ज़ल के शुद्ध क़ाफियों का बोध् शोध का विषय बन जाता है, यह ग़ज़ल का हिन्दी ग़ज़ल से कैसा नाता है?
   श्री चन्द्रसेन विराट की दूसरी ग़ज़ल के मतला में दरबारकी तुक हुंकारसे मिली है। आगे यह ग़ज़ल हुंकारको त्यागकर मक्कार’, ‘बदकार’, ‘सरकार’, की फटकारऔर ललकारको भी गले लगाने से आनाकानी नहीं करती। दरबारकी परिधियों में कैद इस ग़ज़ल के अन्य क़ाफियों से यह पुकारउभरती है कि क़ाफियों की बेतुकी मार’ ‘यारहम क्यों झेलें ? ऐसे में विराटजी से यह कहने की हिम्मत कौन जुटाये कि विराटजी अगर ग़ज़ल ही लिखनी है तो सही तुकें ले लें
   श्री राजेन्द्र तिवारी की कलाकारी आज हिन्दी में खुशबू की तरह जारी है, इनके हिस्से में ग़ज़ल की झण्डेबरदारी है। इस विशेषांक के पृ.85 पर वे तुकों के रूप में कलमकारोंको कारोंमें बिठाते हुए, इनको अखबारोंको दरबारोंतक ले जाते हैं वहां दीवारोंपर तुकों के रूप में बंटवारोंके नारे लगाते हैं। इस प्रकार इस ग़ज़ल के सबकेसब क़ाफिया सिसकते हैं।
   श्री नित्यानंद तुषार अर्थात् हिन्दी के प्रतिनिधि  ग़ज़लकार की इसी विशेषांक के पृष्ठ 89 पर छपी ग़ज़ल की शक़ल बिना रदीफ के स्वर के आधार पर गी’,‘नी’, ‘मी’, ‘दी’, ‘डीके माध्यम से बदलाव का सही आधार ज़रूर खड़ा करती है लेकिन इन्हीं तुकों में दो बार भीआने से [ रदीफ के गायब हो जाने के साथ-साथ ] सही क़ाफियों के गायब होने का प्रमाण भी मिलता है। इसतरह हिन्दीग़ज़ल में कौन-सा गुल खिलता है?
   डॉ. मोहदत्त साथी पृ. 109 पर अपनी ग़ज़ल में दुमदारकी तुक असरदार’, ‘किरदार’, ‘सरदारसे मिलायें और उसमें दरबारऔर सरकारको भी निबाहें अर्थात् ग़ज़ल को हिन्दी ग़ज़ल बनायें तो असहमति कैसी, दुर्गति कैसी?
   श्री अंसार कम्बरी की जल्वागरी भी पृ. 90 पर यूँ उतरी है। इस पृष्ठ पर वे तुक मतसे स्वागतऔर दलगतनिभाते हैं और इस प्रकार हिन्दीग़ज़लकार हो जाते हैं।
   श्री शिवओम अम्बर की दूसरी ग़ज़ल में आचरणका क़ाफिया वैयाकरणसे मिलने के बाद अन्तकरणके संस्करणकी किस शुद्धता में खिला है, क्या यह भी ग़ज़ल के हाथों में प्याले की जगह मशाल थमाने का सिलसिला है?
   श्री महेश अनघ जब ग़ज़ल को हिन्दी ग़ज़ल बनाने के साथ, छंद, तुक, लय के हर परिचय के सदाशय को रूमाल दिखाकर विदा करने पर ही उतावले हैं तो उन्हें यह कौन समझायेगा कि तोड़ेगाकी तुक तोड़ेगाया छोड़ेगाकी तुक छोडे़गाअशुद्ध हैं। यह बताने का अर्थ है कि उनका हिन्दी ग़ज़ल की स्थापना का महान सपना टूट जायेगा।
   तेवरी भले ही अनपढ़ों के गढ़ों में कैद हो लेकिन हिन्दीग़ज़ल के पंख आसमान को छूने के लिये जिस प्रकार फड़फड़ा रहे हैं, इस तथ्य को इस विशेषांक में श्री मलखान सिंह सिसौदिया इस प्रकार बता रहे हैं- श्री सिसौदिया की ग़ज़ल की चाल-ढाल में ऐसा कमाल है कि समांत [ रदीफ ] मुझे क्या हुआसे पहले अगर चार बार पाताआता है तो दो बार बतातेक़ाफिया बनने का प्रयास करता है और कुल मिलाकर यह क़ाफियों का मिलान घूमता हूंके स्वर में भुस की तरह बिखरता है।
   अगर हम यादराम शर्मा की बात को पुनः उठायें और यह बतायें कि रदीफ और क़ाफिया ग़ज़ल की प्राणवायु होते हैं तो उल्लेखित ग़ज़लों से यही प्राणवायु फरार है। कुल मिलाकर औसत हिन्दी ग़ज़ल बीमार है। पर हिन्दी ग़ज़लकार है कि डॉ. राकेश सक्सेना [ प्रसंगवश, हि..वि.पृ.114 ] के रूप में मतला में मचलनेकी तुक संभलनेसे मिलाने की बाद आगे के नये क़ाफिये गड़ने’ ‘झगड़़नेऔर लड़नेभी गढ़ रहे हैं और यह कहकर हिन्दी ग़ज़ल के क्षेत्र में आगे बढ़ रहे हैं कि-
गंगाजली में तुलसी, पीपल की छाँव से
ऋषियों की भाव-भूमि में पलने लगी ग़ज़ल।
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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ-202001

मो.-9634551630  

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