मौलिक चिंतनपरक शोधकृति
“ विरोधरस “
+डॉ. राम सनेही लाल ‘
यायावर ’
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श्री रमेशराज मौलिक चिंतक और समकालीन यथार्थबोधी चेतना के
कवि हैं | उनके पास कारयित्री और भावयित्री दोनों प्रकार की प्रतिभाओं का अकूत
भंडार है | हिंदी-ग़ज़ल के सत्ता-विरोधी, यथार्थबोधी , उग्र और आक्रामक स्वरूप को वे
तेवरी कहते हैं | वर्षों से ‘ तेवरी-पक्ष ‘ पत्रिका के माध्यम से वे तेवरी को
रचनात्मक और शास्त्रीय स्तर पर स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं | समकालीन काव्य
की सभी विधाएं – गीत, नवगीत, मुक्तछंद,
दोहा, हाइकु आदि सभी में यथार्थ का उग्र रूप देखने को मिल रहा है | इसीलिये उनके
द्वारा स्थापित “ विरोधरस ” एक सार्थकता को ग्रहण करता प्रतीत होता है |
पुस्तक-“ विरोधरस ”- ‘विरोधरस के आलम्बन विभाव’, ‘आलम्बन के
अनुभाव’, ‘विरोधरस के अन्य आलम्बन’, ‘विरोधरस के आलम्बनगत संचारी भाव’, ‘विरोधरस
के आश्रयगत संचारी भाव’, विरोधरस का स्थायी भाव आक्रोश, विरोधरस की पहचान, विरोधरस
की निष्पत्ति, विरोधरस की पूर्ण परिपक्व अवस्था, विरोधरस के रूप, विरोधरस के
प्रकार तथा निष्कर्ष आदि अध्यायों में विभक्त है | लेखक ने इन अध्यायों में विषय
का शास्त्रीय विवेचन करते हुए “ विरोधरस ” को पूर्ण शास्त्रीयता प्रदान करने की
चेष्टा की है | लेखक के अनुसार-
“ विरोधरस का स्थायी भाव “आक्रोश ” है |
“आक्रोश” ऊपर से भले ही शोक जैसा लगता है क्योंकि दुःख का समावेश दोनों में समान
रूप से है | लेकिन किसी प्रेमी से विछोह या प्रिय की हानि या उसकी मृत्यु पर जो
आघात पहुँचता है, उस आघात की वेदना नितांत वैयक्तिक होने के कारण शोक को उत्पन्न
करती है जो करुणा में उद्बोधित होती है | जबकि आक्रोश को उत्पन्न करने वाले कारक न
तो अप्रत्यक्ष होते हैं और न मित्रवत | किसी कुपात्र का जान-बूझ कर अप्रिय या कटु
व्यवहार जो मानसिक आघात देता है इस आघात से ही ‘ आक्रोश ‘ का जन्म होता है |
धूर्त्त की छल, धूर्त्तता, मक्कारी और अहंकारपूर्ण गर्वोक्तियाँ सज्जन को ‘ आक्रोश
‘ से सिक्त करती हैं |”
लेखक का मानना है कि-“ कविता का जन्म ‘आक्रोश‘ से हुआ है और यदि
काव्य का कोई आदिरस है तो वह है ‘ विरोध ’ |”
‘ तेवरी ‘ के लिए उन्होंने ‘ विरोधरस ‘ को अनिवार्य माना है और
आलम्बनविभाव के रूप में सूदखोर, भ्रष्ट नौकरशाह, भ्रष्ट पुलिस, नेता तथा
साम्प्रदायिक तत्त्व को स्वीकार किया है | उद्दीपन विभाव के रूप में वे दुष्टों की
दुष्टता, नेताओं की क्रूरता, मीडिया का भ्रष्ट स्वरूप आदि को स्वीकारते हैं |
‘विरोधरस ‘ आश्रयगत संचारी भावों में दुःख, दैन्य, याचना, शंका, विषाद, संताप,
आवेग, भय और साहस आदि को मान्यता प्रदान करते हैं | आश्रय के अनुभावों के रूप में
उन्होंने – अपशब्द बोलना, तड़पना, मुट्ठियों को भींचना, भयग्रस्त हो जाना, आँखों से
रंगीन सपनों का मर जाना, सिसकियाँ भरना,
चट्टान जैसा सख्त हो जाना, सुबकना, थर-थर कांपना, विक्षिप्त-सा हो जाना, आग-सा दहक
उठना, कृशकाय हो जाना, कलेजा मुंह तक आना, आशंका व्यक्त करना, त्रासद परिस्थितियों
की चर्चा करना, निरंतर चिंताग्रस्त रहना आदि को मान्यता देते हैं|
‘
विरोधरस ‘ का अन्य रसों से भी उन्होंने पार्थक्य दिखाया है | उदाहरणार्थ-करुणरस से
विरोधरस को अलग करते हुए श्री राज कहते हैं-“ स्थायी भाव शोक करुणरस में उद्बोधित
होता है जबकि विरोधरस के अंतर्गत स्थायी भाव शोक संचारी भाव की तरह उपस्थित होते
हुए आक्रोश में घनीभूत होता है और स्थायी भाव बन जाता है | जो विरोधरस के माध्यम
से अनुभावित होता है | “
विरोधरस के ‘ रूप ’ व ‘ प्रकार ‘ अध्याय में लेखक ने विरोध के ‘ रूप
‘ – अभिधात्मक विरोध, लक्षणात्मक विरोध, व्यंजनात्मक विरोध, व्यंग्यात्मक विरोध,
प्रतीकात्मक विरोध, भावनात्मक विरोध, वैचारिक विरोध, चिन्तनात्मक विरोध, तीव्र
विरोध, विश्लेष्णात्मक विरोध, क्षुब्धात्मक विरोध, रचनात्मक विरोध, खंडनात्मक
विरोध, परिवर्तनात्मक विरोध, उपदेशात्मक
विरोध, रागात्मक विरोध, संशयात्मक विरोध, एकात्मक विरोध तथा सामूहिक विरोध इन 19
रूपों को स्वीकार किया है | तथा विरोध के ‘ प्रकार ‘ के रूप में –स्व विरोध,
पर-विरोध, व्यक्ति-विशेष-विरोध, चारित्रिक विरोध, अहंकार विरोध, विडम्बना विरोध,
साम्प्रदायिकता विरोध, छद्मता विरोध, आतंकवाद का विरोध, असह्य परिस्थिति विरोध, परम्परा
विरोध, छल-विरोध, विघटन विरोध, समाधानात्मक विरोध, व्यवस्था विरोध को मान्यता दी
है |
कुल मिलाकर लेखक ने सपुष्ट तर्कों से सम्बलित मौलिक चिन्तन के
द्वारा अपने पक्ष को पुष्ट करने का प्रयास किया है | निसंदेह श्री रमेशराज के तर्क
मौलिक व प्रभावी हैं | दृष्टि शास्त्रीय है और तार्किकता अकाट्य है | परन्तु तमाम
विवेचन के उपरांत रस का मूल-तत्त्व ‘
आनन्द ‘ विरोध से तिरोहित है | मेरा विश्वास है कि यह शास्त्रीय कृति कवि और
लेखकों को एक नयी दिशा देगी तथा
साहित्य-जगत में विचारोत्तेजक बहस का मार्ग प्रशस्त करेगी | पुस्तक गम्भीर
काव्य-शास्त्रीय पाठकों के लिए सर्वतोभाविक पठनीय व संग्रहनीय है |
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डॉ.
रामसनेही लाल ‘ यायावर ’, 86, तिलकनगर, बाईपास रोड, फीरोजाबाद-283203 मो.-09412316779
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