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24 फ़रवरी 2017

विरोध की कविता : “ जै कन्हैयालाल की “ + डॉ. ब्रह्मजीत गौतम






विरोध की कविता : “ जै कन्हैयालाल की “
                 
                  [ प्रथम संस्करण ]

+ डॉ. ब्रह्मजीत गौतम
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    ‘ तेवरी ‘ विधा के प्रणेता, कथित विरोधरस के जन्मदाता श्री रमेशराज की लघु कृति ‘ जै कन्हैयालाल की ‘ आज के समाज और समय की विसंगतियों और विद्रूपों का जीवंत दस्तावेज़ है | 105 द्विपदियों से समन्वित इस कृति को कवि ने ‘ लम्बी तेवरी ‘ नाम दिया है | प्रत्येक द्विपदी में एक प्रथक भाव या तेवर है, अतः कवि ने इसे ‘ तेवर-शतक ‘ भी कहा है | वस्तुतः ‘ जै कन्हैयालाल की ‘ एक प्रकार का उपालम्ब काव्य है, जिसमें कवि ने जनता रुपी गोपियों की आवाज़ उसके द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों रुपी उद्धव के माध्यम से हर उस शासक तक पहुँचाने का प्रयास किया है जो वेशभूषा से तो कृष्ण जैसा लगता है, किन्तु आचरण से कंस जैसा होता है | ‘ मनमोहन ‘ शब्द का साभिप्राय प्रयोग कर, परिकरान्कुर और श्लेष अलंकार से गुम्फित 101 वीं द्विपदी देखिये, जो काव्य-सौन्दर्य की दृष्टि से तो उत्कृष्ट है ही, कृति के उद्देश्य को भी बड़े कलात्मक ढंग से प्रस्तुत करती है-
        ऊधौ मनमोहन से बोल देना राम-राम
        बैठे कान रुई डाल,  जै कन्हैयालाल की  |
    कृति की द्विपदियां हमारे सामने समाज में व्याप्त शोषण, अत्याचार, कंगाली, भ्रष्टाचार, हिंसा, हड़ताल, महंगाई, आदि व्याधियों के दृश्य उपस्थित करती हैं | आज स्थिति यह है कि प्रतिभा-सम्पन्न लोग तो ठोकरें खाते फिरते हैं, किन्तु नक्काल मौज मनाते देखे जा सकते हैं | जनता को तो रोटी-दाल तक नसीब नहीं है, किन्तु नेताजी हर रोज तर माल हज़म कर जाते हैं | विश्वबैंक से कर्ज ले-लेकर देश को निहाल कर रहे हैं | सत्य को कब्र में दफ़नाया जा रहा है और झूठ नंगा नाच कर रहा है |
    जहाँ कहीं कवि ने प्रतीकों का सहारा लेकर बात कही है, उसकी व्यंजकता कई गुना बढ़ गयी है | ऐसे कुछ तेवरों पर दृष्टिपात करना उचित होगा-
       
        ‘ विकरम ‘ मौन औ सवाल ही सवाल हैं
        डाल-डाल ‘ वैताल ‘, जै कन्हैयालाल की |
आज़ादी के नाम पे बहेलियों के हाथ में
        पंछियों की देख-भाल, जै कन्हैयालाल की |  
        जहाँ-जहाँ जल-बीच नाचतीं मछलियाँ
        छोड़ दिये घड़ियाल, जै कन्हैयालाल की |
    कवि का कटाक्ष है कि नेताओं को यदि त्रिभुज बनाना हो तो वे परकार को हाथ में लेते हैं | घोड़े तो धूप-ताप सहते हैं किन्तु गदहों के लिए घुड़साल खुली हुयी हैं | यहाँ ‘ फूट डालो राज करो ‘ की नीति अपनायी जाती है | पांच साल बाद जब चुनाव आते हैं तो नेताजी बड़े दयालु हो जाते हैं | अंत में कवि विवस होकर भविष्यवाणी करता है-
        ऊधौ सुनो भय-भरे आपके निजाम का
        कल होगा इंतकाल, जै कन्हैयालाल की |
    104 वीं द्विपदी से सूचित होता है कि कवि ने यह लम्बी तेवरी वर्णिक छंद में रची है –
        तेवरी विरोध-भरी वर्णिक छंद में
        क्रांति की लिए मशाल, जै कन्हैयालाल की |
    किन्तु यह कौन-सा वर्णिक छंद है, इसका उल्लेख नहीं किया है | फलस्वरूप शुद्धता की जांच नहीं की जा सकती है | छंद शास्त्र सम्बन्धी पुस्तकों के अवलोकन से विदित होता है कि इस छंद की लय चामर अथवा कुञ्ज से मिलती है | किन्तु ये दोनों छंद गणात्मक हैं | ‘ जै कन्हैयालाल की ‘ की अधिकांश द्विपदियाँ  गणात्मक न होने के कारण दोषपूर्ण हैं | इनमें कोई एक क्रम नहीं है | कहीं पंक्ति में 14 तो कहीं 15 अथवा 16 वर्ण हैं |  इसी प्रकार ‘ आदमी का सद्भाव कातिलों के बीच में ‘ के अंतर्गत ‘ बीच ‘ के आगे ‘ में ‘ का प्रयोग भर्ती का है | ‘ बीच ‘ शब्द के अंतर्गत ‘ में ‘ का भाव पहले से ही निहित है |
    प्रकटतः इस तेवरी में ग़ज़ल का रचना-विधान दिखायी देता है | कवि की पत्रिका ‘ तेवरी-पक्ष ‘ में प्रकाशित तेवरियाँ भी सामान्यतः ग़ज़ल-फार्मेट में ही होती हैं | मतला, मक़ता, बहर, काफ़िया, रदीफ़, सबकुछ ग़ज़ल जैसा | किन्तु श्री रमेशराज उन्हें ग़ज़ल नहीं मानते | क्योंकि ग़ज़ल तो वह है जिसमें आशिक-माशूका के बीच प्यार-मुहब्बत की गुफ्तगू हो | ग़ज़ल का शाब्दिक अर्थ यही है | यदि श्री राज की इस मान्यता के अनुसार चलें तो आज दोहा, गीत, मुक्तक, आदि सभी कविताएँ तेवरी कही जानी चाहिए, क्योंकि उनमें भी जीवन के खुरदरे सत्य की चर्चा है | आज का नवगीत तो पूर्णतः अन्याय, अत्याचार, शोषण और राजनीतिक कुटिलता के विरुद्ध आवाज़ उठाता है | अतः वह भी तेवरी हुआ | समय के साथ-साथ आदमी का स्वभाव, पहनावा और आदतें बदल जातीं हैं, किन्तु उनका नाम वही रहता है | ‘ तेल ‘ शब्द का प्रयोग किसी समय मात्र तिल से निकलने वाले द्रव के लिए होता था, किन्तु आज वह सरसों , लाहा, मूंगफली, बिनौला, यहाँ तक कि मिट्टी के तेल के लिए भी प्रयुक्त होता है | ‘ मृगया ‘ शब्द का प्रयोग भी कभी केवल हिरन के शिकार के लिए होता था, किन्तु कालान्तर में वह सब प्रकार के पशुओं के लिए होने लगा | तो आज यदि समय के बदलाव के साथ ग़ज़ल का कथ्य बदल गया है तो वह ‘ ग़ज़ल ’ क्यों नहीं कही जानी चाहिए | अंततः कविता की कोई भी विधा अपने समय के अनुगायन ही तो करती है, अन्यथा उसकी प्रासंगिकता ही क्या रहेगी |
    अस्तु, इस बात से विशेष अंतर नहीं पड़ता कि ‘ जै कन्हैयालाल की ‘ रचना एक लम्बी तेवरी है या लम्बी ग़ज़ल | मूल बात यह है कि यह समाजोपयोगी है और शिवेतरक्षतये के उद्देश्य की पूर्ति करती है | छान्दसिक अनुशासन की कतिपय शिथिलताओं के बावजूद यह पाठक की चेतना पर पर्याप्त सकारात्मक प्रभाव छोड़ती है | साहित्य जगत में इसे पर्याप्त स्थान मिलेगा, यह विश्वास न करने का कोई कारण नहीं है |
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डॉ. ब्रह्मजीत गौतम, युक्का-206, पैरामाउन्ट, सिंफनी, क्रोसिंग रिपब्लिक, गाजियाबाद-201016  moba.- 9760007838        

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