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23 अक्टूबर 2016

‘ विरोधरस ‘---14. || विरोधरस का स्थायीभाव---'आक्रोश' || +रमेशराज


‘ विरोधरस ‘---14.


विरोधरस का स्थायीभाव---'आक्रोश

+रमेशराज
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विरोध-रस को परिपक्व अवस्था तक पहुंचाने वाला स्थायी भाव आक्रोशअनाचार और अनीति के कारण जागृत होता है। इसकी पहचान इस प्रकार की जा सकती है-
जब शोषित, दलित, उत्पीडि़त व्यक्ति की समझ में यह तथ्य आने लगता है कि वर्तमान व्यवस्था सुविधा  के नाम पर सिर्फ दुविधा में डाल रही है-कोरे आश्वासनों के बूते आदमी का कचूमर निकाल रही है तो उसे नेताओं की वसंत के सपने दिखाने वाली वाणी खलने लगती है-
इस व्यवस्था ने दिए अनगिन जखम इन्सान को,
बात नारों की बहुत खलने लगी है बंधु अब।
-अजय अंचल, अभी जुबां कटी नहीं [तेवरी-संग्रह ] पृ. 22
भूख-गरीबी-बदहाली का शिकार आदमी जब यह जान लेता है कि महंगाई-बेरोजगारी-अराजकता किसी और ने नहीं फैलायी है, इसकी जिम्मेदार हमारी वह सरकार है जो लोकतांत्रिक तरीके से चुनी अवश्य गयी है, लेकिन लोकतंत्र के नाम पर सारे कार्य अलोकतांत्रिक कर रही है, नये-नये टैक्स लगाकर आम आदमी की कमर तोड़ रही है। यह सब देखकर या जानकार उसका ऐसी सरकार से मोहभंग ही नहीं होता, उसके भीतर व्यवस्था या सत्ता परिवर्तन की एक बैचैनी परिलक्षित होने लगती है। इसी बैचेनी का नाम आक्रोश है। आक्रोशित आदमी में बार-बार एक ही सवाल मलाल की तरह उछाल लेता है---
रोटी के बदले आश्वासन,
कब तक देखें यही तमाशा?
-दर्शन बेजार, देश खण्डित हो न जाए [तेवरी-संग्रह ] पृ.51
धर्म, आस्था व श्रद्धा का विषय इसलिए है क्योंकि इसके माध्यम से मनुष्य आत्मिक शांति को प्राप्त करना चाहता है। अहंकार-मोह-मद और स्वार्थ के विनाश को सहज सुकोमल व उदार बनाने वाली अंतर्दृष्टि मनुष्य के मन में दया, करुणा और मंगल की भावना की वृष्टि करती है। मनुष्य धर्म के वशीभूत होकर शेष सृष्टि को भी अपना ही हिस्सा या परिवार मानता है। उसमें परोपकार की भावना अभिसंचित होती है। ऐसे मनुष्य की आत्मा समस्त सृष्टि के साथ हंसती-गाती-मुस्काती और रोती है।
समूचे विश्व से अपने परिवार जैसा व्यवहार करने वाला व्यक्ति जब यह देखता है कि धार्मिकस्थल मादक पदार्थों की आपूर्ति करने वाले, लोभ-लालच देकर आम आदमी का धन अपनी अंटियों में धरने वाले, सांप्रदायिकता को लेकर उन्मादी, छल-प्रपंच के आदी बन चुके हैं तो उसकी आदर्शवादी, कल्याणकारी भावनाएं रक्तरंजित हो जाती हैं। सांप्रदायिक उन्माद से पनपी हिंसा उसे केवल विरक्ति की ही ओर नहीं ले जाती है, उसे यह कहने को भी उकसाती है-
भ्रष्टाचार धर्म है उनका,
दुर्व्यवहार धर्म है उनका।
राखी-रिश्ता वे क्या जानें,
यौनाचार धर्म है उनका।
-अरुण लहरी, अभी जुबां कटी नहीं [तेवरी-संग्रह ] पृ. 10
धर्म का अधर्मी रूप देख कर एक मानव-सापेक्ष चिन्तन करने वाला व्यक्ति, छटपटाता है-तिलमिलाता है। क्षुब्ध होता है | इसी क्षुब्धता-छटपटाहट-तिलमिलाहट से स्थायी भाव आक्रोश जागृत हो जाता है---
-गौतमजिन्हें हमने कहा इस सदी में दोस्तो?
आज वो जल्लाद होते जा रहे हैं देश में।
-अजय अंचल, अभी जुबां कटी नहीं [तेवरी-संग्रह ] पृ.20
एक मानवतावादी चिंतक धार्मिक पाखण्ड के विद्रूप के शिकार उस हर भोले इंसान को देखकर दुखी होता है, जो प्रबुद्ध चेतना के स्थान पर राशिफल में उलझ गया है-
अब बदलना है जरूरी हर तरफ इसका दिमाग,
आदमी बस राशिफल है यार अपने देश में।
-अजय अंचल, अभी जुबां कटी नहीं [तेवरी-संग्रह ] पृ.21
मनुष्य का एक सुकोमल स्वभाव है कि वह सहज ही दूसरों पर विश्वास कर लेता है, उनके प्रति समर्पित हो जाता है। बस इसी का फायदा उठाते हैं दुष्टजन। वे उसके साथ बार-बार छल करते हैं। उसके धन को हड़पने के नये-नये तरीके खोजते हैं। उसके विश्वास को ठेस पहुंचाते हैं। विश्वास के बीच में ही विश्वासघात के रास्ते निकलते हैं, इसलिये साथ-साथ जीने-मरने की सौगंदें खाने वाले दुष्टजन गिरगिट की तरह रंग बदलते हैं।
प्रेम स्वार्थसिद्धि का जब साधन बनता है तो सज्जन का माथा ठनकता है। आपसी संबंध एक लाश में तब्दील हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में सज्जन बार-बार हाथ मलता है। मन उस दुष्ट के प्रति आक्रोश से भर उठता है। उसमें मित्रता के प्रति शंकाएं जन्म लेने लगती हैं। उसका मन आसक्ति के स्थान पर विरक्ति से भर जाता है-
हर पारस पत्थर ने हमको
धोखे दिये विकट के यारो।
सब थे खोटे सिक्के,
जितने देखे उलट-पलट के यारो।
-अरुण लहरी, इतिहास घायल है [तेवरी-संग्रह ] पृ.26
प्यार में विश्वासघात को प्राप्त ठगई-छल-स्वार्थ के शिकार आदमी में व्याप्त आक्रोश की दशा कुछ इस प्रकार की हो जाती है-
आदमखोर भेडि़ए सब हैं,
सबकी खूनी जात यहां हैं।
-सुरेश त्रस्त, अभी जुबां कटी नहीं [तेवरी-संग्रह ] पृ. 37
रहनुमा पीते लहू इन्सान का,
भेडि़यों-सी तिश्नगी है दोस्तो।
-ज्ञानेंद्र साज़, अभी जुबां कटी नहीं [तेवरी-संग्रह ] पृ. 46
व्यक्ति में व्याप्त आक्रोश की पहचान ही यह है कि जिस व्यक्ति में आक्रोश व्याप्त होता है, वह असहमत अधीर  और उग्र हो जाता है। उसके सहज जीवन में चिंताओं का समावेश हो जाता है। वह रात-रात भर इस बात को लेकर जागता है-
इस तरह कब तक जियें बोलो,
जिंदगी बेजार किश्तों में।
-दर्शन बेजार, एक प्रहारः लगातार [तेवरी-संग्रह ] पृ.64
आक्रोश को जागृत कराने वाले वे कारक जो मनुष्य की आत्मा [रागात्मक चेतना] को ठेस पहुंचाते हैं या मनुष्य के साथ छल-भरा, अहंकार से परिपूर्ण उन्मादी व्यवहार करते हैं तो ऐसे अराजक-असामाजिक और अवांछनीय तत्त्वों का शिकार मनुष्य शोक-भय-खिन्नता-क्षुब्ध्ता से सिक्त होकर अंततः आक्रोश से भर उठता है।
आक्रोशित मनुष्य मानसिक स्तर पर तरह-तरह के द्वंद्व झेलते हुए व्यग्र और उग्र हो उठता है। यह उग्रता ही उसके मानसिक स्तर पर एक युद्ध शत्रु वर्ग से लड़ती है। यह युद्ध शत्रु से सीधे न होकर चूंकि मन के भीतर ही होता है, अतः इसकी परिणति रौद्रता में न होकर विरोध में होती है। इस तथ्य को हम इस प्रकार भी स्पष्ट कर सकते हैं कि आक्रोश शत्रु से टकराने से पूर्व की एक मानसिक तैयारी का नाम है-
इस आग को भी महसूस करिए, हम बर्फ में भी उबलते रहे हैं।
-गजेंद्र बेबस, इतिहास घायल है [तेवरी-संग्रह ] पृ.6
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+रमेशराज की पुस्तक ‘ विरोधरस ’ से
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+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001 
मो.-9634551630       

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