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8 अक्तूबर 2016

तन्हाईयाँ

तन्हाईयाँ



तन्हाइयों की तलाश या किसी कसक की आहट ग़ज़ल इश्क़ या खुद से तार्रुफ़

तन्हाइयों की तलाश या किसी कसक की आहट ग़ज़ल इश्क़ या खुद से तार्रुफ़
कुछ ख्वाहिशें या बेचैनियाँ
ज़माने ने कोशिश बहुत की उड़ाने की
हम वो परिंदे थे जो पिंजरे में बंद थे
कभी तो गुजारिश नवाजिश से महकेगी
वरना ज़िन्दगी तनहा तो कट ही रही है
पन्ना तो आज भी है ज़िन्दगी का लेकिन
कुछ झुर्रियों की धूल जमा है जिल्द पर
कभी तो नियामत होगी इस स्याह खत पर भी
वरना ज़िन्दगी तनहा तो कट ही रही है ॥
दिल से निकली थी कसक जिसकी तलाश में
उम्मीद थी उसे कि मुख़्तार (chosen one) जो मिले
कभी तो तार्रुफ़ (introduction) होगा चमन से माली का
वरना ज़िन्दगी तनहा तो कट ही रही है ॥
चलते चले हैं जा रहे बेवजह रास्तों पर हम
पत्थर मिले या फूल सब कुछ क़ुबूल है
कभी तो हमसफ़र मिलेगा मेरी तन्हाइयों को भी
वरना ज़िन्दगी तनहा तो कट ही रही है ॥
चिपके हुए हैं सांप दुनियां की नज़र के
नज़रें गड़ाए हैं सभी गिद्धों के हमशकल
कभी तो छाओं आएगी हमारे वज़ूद पर भी
वरना ज़िन्दगी तनहा तो कट ही रही है ॥

5 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 10 अक्टूबर 2016 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. आभार यशोदा जी. आपके बहुमूल्य समय अवाम प्रदत्त अवसर के लिए.

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  2. आभार शास्त्री जी. आपके द्वारा प्रदत्त सुअवसर के लिए

    जवाब देंहटाएं

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