‘ विरोधरस ‘---20.
‘विरोध-रस’
के रूप व प्रकार
+रमेशराज
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आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के निबंध् ‘काव्य
में लोकमंगल की साधनावस्था’ नामक निबन्ध
में कहते हैं -
‘‘लोक में फैली
दुःख की छाया को हटाने में ब्रह्म की आनंद-कला
जो शक्तिमय रूप धारण करती है, उसकी
भीषणता में भी अद्भुत मनोहरता, कटुता
में भी अपूर्व मधुरता, प्रचण्डता
में भी गहरी आद्रता साथ लगी रहती है---यदि
किसी ओर उन्मुख ज्वलंत रोष है तो दूसरी ओर करुण दृष्टि फैली दिखायी पड़ती है। यदि किसी
ओर ध्वंस और हाहाकार है तो और सब ओर उसका सहगामी रक्षा और कल्याण है।’’
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के निबंध् ‘काव्य
में लोकमंगल की साधनावस्था’ के उपरोक्त
कथन के आधार पर यह तथ्य, सत्य हो जाते
हैं कि काव्य को रसनीय मात्र वे भाव ही नहीं बनाते हैं,
जो मधुर और कोमल होते हैं। ध्वंस और अत्याचार के वातावरण
में प्रतिकार का जो स्वर मुखर होता है, उसकी
गति करुणा से उत्पन्न होकर रक्षा और कल्याण की ओर जाती है,
जिसके भीतर प्राणी की हर क्रिया,
प्रतिक्रिया या अनुक्रिया अधर्म के प्रति असहमति की ऊर्जा बनकर आक्रोश का रूप धारण
करती है। आहत मन के भीतर जब ‘आक्रोश’
स्थायित्व ग्रहण करता है तो इस स्थायी भाव का अनुभावन
‘विरोध’
के रूप में सामने आता है।
‘विरोध’
को एक नये रस के रूप में प्रस्तुत करना माना एक नये
अनुभव से गुजरना है। लेकिन यह कार्य अटपटा या अतार्किक इसलिए नहीं है क्योंकि ‘‘केवल
परम्परागत स्थायी भाव ही रसत्व को प्राप्त हो सकते हों,
ऐसी बात नहीं है, तथाकथित
संचारी भी रसत्व को प्राप्त हो सकते हैं। रुद्रट, उद्भट,
आनंदवर्धन आदि अनेक आचार्यों ने इस बात को स्वीकार किया
था।
आचार्य भोज ने एक और कदम आगे बढ़ाया और कहा कि
उनचास भावों के अतिरिक्त भी जो कुछ रसनीय है या बनने की सामथ्र्य रखता है,
उसे रस कहा जा सकता है। इसी आधर पर उन्होंने रसों की
संख्या का विस्तार भी किया।’’ [रस-सिद्धांत
, डा.ऋषि कुमार चतुर्वेदी,
पृष्ठ 119-120]
अस्तु! नये
रस ‘विरोध’
का रस-रूप
वर्तमान यथार्थोंन्मुखी काव्य में अनेक रूप व प्रकारों में दृष्टिगोचर होता है। ‘विरोध’
के यह रूप तथा प्रकार अनेक हो सकते हैं |
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+रमेशराज की पुस्तक ‘ विरोधरस ’ से
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+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001
मो.-9634551630
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