सुरमई सांझ, सोने सी थाली सा ढलता सूरज
तरह-तरह की आकृतियों से उड़ते पंछी
घरों से उठता धुँआ,
चूल्हों पे सिकती रोटियों की महक
गलियों में खेलते बच्चे
माँ की डाँट, खाने की मीठी मनुहार
जाने कहाँ खो गए
एक दूसरे से आगे जाने की होड़
जिन्दगी की भागमभाग,
सब कुछ पा लेने की स्पर्धा मे
हम कुछ से कुछ और हो गए
अठखेलियाँ करता बचपन,
बादलों में तस्वीरें बनाने की कल्पना
जाने कहाँ रह गई
पछुआ पवनों की सिहरन,
बरखा की बूँदों की छम-छम सी हँसी
ना जाने कौन दिशा में बह गई
पूर्णिमा की सांझ,
मेरे साथ चलता चाँद
चाँद में चरखा कातती बुढ़िया,
नीम का पेड़
यादों में डूबा मन
रोशनी के उजालों मे,
भागती भीड़ में यातायात के जाम में
ना जाने कहाँ खो गया
शरद पूर्णिमा का चाँद,
चाँदनी में सुई पिरोने का सपना
इस शहर में आकर
कहीं मुँह ढक कर सो गया.
XXXXX
शुभ प्रभात
जवाब देंहटाएंदीप पर्व की शुभकामनाएँ
स्वागत है आपका
एक साथ प्रकाशन नहीं न करें
प्रतिदिन एक करें
सब पढ़ेंगे....
सादर
दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ यशोदा जी.आपकी सलाह के लिए तहेदिल से शुक्रिया .
हटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 31 अक्टूबर 2016 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंतहेदिल से शुक्रिया यशोदा जी .
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंसुंदर रचना ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर ।
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