‘ विरोधरस ‘---1.
‘ विरोधरस ‘ [ शोध-प्रबन्ध ]
विचारप्रधान कविता का रसात्मक समाधान
+लेखक - रमेशराज
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‘ विरोधरस ‘ : रस-परम्परा एक नये रस की खोज
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समाज में
हमेशा सबकुछ सही घटित नहीं होता और न स्थितियां परिस्थितियां अनुकूल बनी रहती
है | मनुष्य से मनुष्य के बीच के सम्बन्धों में जब कटुता उत्पन्न होती है , रिश्तों
में स्वार्थ, धन , मद,
मोह, अहंकार
अपनी जड़ें जमाने लगता
है तो स्वाभाविक रूप से खिन्नता, क्लेश,
क्षोभ, तिलमिलाहट,
बौखलाहट, उकताहट,
झुंझलाहट, बेचैनी,
व्यग्रता, छटपटाहट,
बुदबुदाहट, कसमसाहट
से भरी प्राणी की आत्मा क्रन्दन प्रारम्भ कर देती है। इसी क्रन्दन का नाम है-आक्रोश।
आक्रोश स्वयं की विफलता से उत्पन्न नहीं होता।
आक्रोश को उत्पन्न करने वाले कारक हैं-समाज
के वे कुपात्र, जो अनीति,
अनाचार, अत्याचार,
शोषण और साम्राज्यवादी मानसिकता के कारण समाज के सीधे-सच्चे
और कमजोर लोगों को अपना शिकार बनाते हैं। उन्हें तरह-तरह
की यातना देते हैं। अपमानित करते हैं। उन्हें उनकी मूलभूत सुविधाओं से वंचित करने का
कुत्सित प्रयास करते हैं, साधनहीन बनाते
हैं। ऐसे लोगों अर्थात् दुष्टों को सबल और अपने को निबल मानकर असहाय और निरूपाय होते
जाने का एहसास ही आक्रोश को जन्म देता है। आक्रोश मनुष्य की आत्मा में उत्पन्न हुई
एक ऐसी दुःखानुभुति या शोकानुभूति है जो मनुष्य को हर पल विचलित किये रहती है। अपने
असुरक्षित और अंधकारमय भविष्य को लेकर मनुष्य का चिंतित होना स्वाभाविक है। मनुष्य
की यह चिन्ताएं हमें समाज के हर स्तर पर दिखायी देती हैं।
एक सबल व्यक्ति एक निर्बल-निरपराध
व्यक्ति को पीटता है तो पिटने वाला व्यक्ति उसे सामने या उसकी पीठ पीछे लगातार गालियां
देता है। उसे तरह-तरह की बद्दुआएं
देता है। उसे अनेकानेक प्रकार से कोसता है। धिक्कारता है। उसके विनाश की कामनाएं करता
है। किन्तु उस दुष्ट का विनाश करने या उसे ललकार कर पीटने में अपने को असहाय या निरुपाय
पाता है। इसी स्थिति को व्यक्त करने के लिए कबीर ने कहा है-
निर्बल
को न सताइये जाकी मोटी हाय,
मुई
खाल की सांस सौं सार भसम ह्वै जाय।
क्या निर्बल की आह को देखकर कभी दुष्टजन सुधरे
हैं? उत्तर है-नहीं।
उनकी दुष्टता तो निरंतर बढ़ती जाती है। तुलसीदास की मानें तो दुष्टजन दूसरों को परेशान
करने या उन्हें यातना देने के लिए ‘सन’
की तरह अपनी खाल तक खिंचवा लेते हैं ताकि दूसरों को
बांधा जा सके। दुष्टजन
‘ओले’
जैसे स्वभाव के होते हैं,
वे तो नष्ट होते ही हैं किन्तु नष्ट होते-होते
पूरी फसल को नष्ट कर जाते हैं। ऐसे दुष्ट, समाज
को सिर्फ असुरक्षा, भय,
यातना, अपमान,
तिरस्कार, चोट,
आघात और मात देने को सदैव तत्पर रहते हैं।
वर्तमान समाज में निरंतर होती दुष्टजनों की वृद्धि समाज को जितना असहाय,
असुरक्षित और कमजोर कर रही है,
समाज में उतना ही आक्रोश परिलक्षित हो रहा है। कहीं
पुत्र, पिता की बात न मानकर अभद्र
व्यवहार कर रहा है तो कहीं भाई, भाई
से कटुवचन बोलने में अपनी सारी ऊर्जा नष्ट कर रहा है। कहीं सास,
बहू के लिये सिरदर्द है तो कहीं बहू,
सास को अपमानित कर सुख ही नहीं,
परमानंद का अनुभव कर रही है।
आज हमारी हर भावना आक्रोश से भर रही है। हर किसी
के सीने में एक कटुवचनों की छुरी उतर रही है। अपमान, तिरस्कार,
उपेक्षा, थोथे
दम्भ, घमंड और अहंकार का शिकार आज
हमारा पूरा समाज है। निर्लज्ज बहू को देखकर ससुर या जेठ के मन में भयानक टीस है तो
बहू को ससुर या सास का व्यवहार तीर या तलवार लग रहा है। किंतु कोई किसी का बिगाड़ कुछ
नहीं पा रहा है। इसलिए हर किसी का मन झुंझला रहा है,
झल्ला रहा है, बल
खा रहा है। उसमें स्थायी भाव आक्रोश लगातार अपनी जड़ें जमा रहा है। इसी झुंझलाने-झल्लाने
और बल खाने का ही नाम आक्रोश है। यही स्थायी भाव आक्रोश ‘विरोधरस’ की अनुभूति सामाजिको
अर्थात् रस के आश्रयों को कराता है |
आक्रोश एक ऐसा जोश है जिसकी परिणति रौद्रता में
कभी नहीं होती। आक्रोश ऊपर से भले ही शोक जैसा लगता है,
क्योंकि दुःख का समावेश दोनों में समान रूप से है। लेकिन
किसी प्रेमी से विछोह या प्रिय की हानि या मृत्यु पर जो आघात पहुंचता है,
उस आघात की वेदना नितांत दुःखात्मक होने के कारण शोक
को उत्पन्न करती है, जो करुणा
में उद्बोधित होती है। जबकि
आक्रोश को उत्पन्न करने वाले कारकों के प्रति सामाजिक प्रतिवेदनात्मक हो जाता है ।
किसी कुपात्र का जानबूझकर किया गया अप्रिय या कटु
व्यवहार ही मानसिक आघात देता है और इस आघात से ही आक्रोश का जन्म होता है। दुष्ट की
छल, धूर्त्तता,
मक्कारी और अंहकारपूर्ण गर्वोक्तियां सज्जन को आक्रोश
से सिक्त करती हैं।
किसी सेठ या साहूकार द्वारा किसी गरीब का शोषण
या उसका निरंतर आर्थिक दोहन गरीब को शोक की ओर नहीं आक्रोश की ओर ले जाता है।
पुलिस द्वारा निरपराध को पीटना,
फंसाना, हवालात
दिखाना या उसे जेल भिजवाना, बहिन-बेटियों को छेड़ना, सुरापान
कर सड़क पर खड़े होकर गालियां बकना या किसी अफसर या बाबू द्वारा किसी मजबूर का उत्कोचन
करना, उसके काम को लापरवाही के साथ
लम्बे समय तक लटकाये रखना, उसे बेवजह
दुत्कारते-फटकारते रहना
या उस पर अन्यायपूर्वक करारोपण कर देना, सरल
कार्य को भी बिना सुविधा शुल्क लिये न करना या किसी दहेज-लालची
परिवार द्वारा ससुराल पक्ष के लोगों से अनैतिक मांगे रखना,
शोक को नहीं आक्रोश को जन्म देता है।
शोक में मनुष्य बार-बार
आत्मप्रलाप या रुदन करता है। अपनी प्रिय वस्तु के खो जाने पर उसे पुनः प्राप्त करने
की बार-बार कामना करता है। कृष्ण के
गोपियों को छोड़कर चले जाने पर पूरे ब्रज की गोपियों में उत्पन्न हुई शोक की लहर,
गोपियों के मन पर एक कहर बनकर अवश्य गिरती है किन्तु
उसकी वेदना प्रिय है। गोपियों के अबाध क्रन्दन में भी कृष्ण से मिलन की तड़प है |
एक प्रेमी का प्रेमिका के साथ किया गया छल और बलात्कार
किसी भी स्थिति प्यार को जन्म नहीं देता। बलत्कृत प्रेमिका सोते,
जागते, उठते,
बैठते उसे बार-बार
धिक्कारती है। उसके वचन मृदु के स्थान पर कठोर हो जाते हैं। प्रेमी के समक्ष अशक्त,
असहाय और निरुपाय हुई प्रेमिका अपने मन के स्तर पर प्रेमी
के सीने में खंजर घौंपती है। उसके सर्वनाश की कामना करती है। कुल मिलाकर वह शोक से
नहीं, आक्रोश से भरती है,
जिसे मनुष्य के ऐसे आंतरिक क्रोध के रूप में माना जा
सकता है, जो रौद्रता में तब्दील न होकर
‘विरोध’
में तब्दील होता है।
साहित्य चूंकि मनुष्य के मनोभावों को व्यक्त करने
का एक सर्वाधिक् सशक्त साधन या माध्यम है, इसलिए
समाज में जो कुछ घटित होता है, उस
सबके लिए साहित्य में अभिव्यक्ति के द्वार खुलते हैं। आदि कवि बाल्मीकि की बहेलिये
द्वारा कौंच-वध किये जाने
पर लिखी गयी पंक्तियां मात्र तड़पते हुए क्रौंच की पीड़ा या दुःख को ही व्यक्त नहीं
करतीं। वे उस बहेलिए के कुकृत्य पर भी आक्रोश से सिक्त हैं,
जिसने क्रौंच-वध
किया। इस तथ्य को प्रमाण के रूप में हम इस प्रकार भी रख सकते हैं कि कविता का जन्म
आक्रोश से हुआ है और यदि काव्य का कोई आदि रस है तो वह है-‘विरोध’।
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+रमेशराज की पुस्तक ‘ विरोधरस ’ से
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+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001
मो.-9634551630
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