ब्लौग सेतु....

29 मई 2017

स्पर्श


मेरे आँगन से बहुत दूर
पर्वतों के पीछे छुपे रहते थे
नेह के भरे भरे बादल
तुम्हारे स्नेहिल स्पर्श पाकर
मन की बंजर प्यासी भूमि पर
बरसने लगे है बूँद बूँद
रिमझिम फुहार बनकर
अंकुरित हो रहे है
बरसों से सूखे उपेक्षित पड़े
इच्छाओं के कोमल बीज
तुम्हारे मौन स्पर्श की
मुस्कुराहट से
खिलने लगी पत्रहीन
निर्विकार ,भावहीन
दग्ध वृक्षों के शाखाओं पे
 गुलमोहर के रक्तिम पुष्प
भरने लगे है रिक्त आँचल
इन्द्रधनुषी रंगों के फूलों से
तुम्हारे शब्दों के स्पर्श
तन में छाने लगे है बनकर
चम्पा की भीनी सुगंध
लिपटने लगे है शब्द तुम्हारे
महकती जूही की लताओं सी
तुम्हारे एहसास के स्पर्श से
मुदित हृदय के सोये भाव
कसमसाने लगे है आकुल हो
गुनगुनाने लगे है गीत तुम्हारे
बर्फ से जमे प्रण मन के
तुम्हारे तपिश के स्पर्श में
गलने लगे है कतरा कतरा
हिय बहने को आतुर है
प्रेम की सरिता में अविरल
देह से परे मन के मौन की
स्वप्निल कल्पनाओं में
         
        #श्वेता🍁



प्रेम का विकसित होना मतलब सेक्स का क्षीण होना है

आप जानते है कि प्रेम(Love)और सेक्स(Sex)ये दो विरोधी चीजे है जब प्रेम बढ़ता है तो सेक्स क्षीण हो जाता है और प्रेम जितना कम होता है उतना सेक्स बढ़ जाता है हो सकता है ये बात सुनने और समझने में आपको अटपटी लगे लेकिन अपने जीवन में बिना तर्क के भी अनुभव का प्रयास करे जिस व्यक्ति में जितना जादा प्रेम पुलकित होगा उसका सेक्स यानि की काम वासना कम होगी-

प्रेम का विकसित होना मतलब सेक्स का क्षीण होना है

जब मनुष्य प्रेम से परिपूर्ण होता जाता है उसके भीतर सेक्स जैसी चीज नहीं रह जाती है और अगर आपके अंदर प्रेम दिखावा मात्र है यानि छलावा है तो फिर आपके भीतर सेक्स का उदय होना संभव है वास्तविक सत्य यही है कि सेक्स जहाँ है वहां प्रेम का स्थान नहीं और जहाँ प्रेम है सेक्स की इक्छा कदापि नहीं नहीं हो सकती है भगवान् कृष्ण और गोपी का वास्तविक प्रेम इसका एक अदभुत उदाहरण है-

सेक्स की शक्ति को परिवर्तन करना है तो उदात्तीकरण से होता है आप चाहते है कि सेक्स से मुक्त हो तो सेक्स को दबाने से कुछ भी नहीं होने वाला है क्युकि किसी भी चीज को दबाना वो और प्रखर हो उठता है और जादा पागल हो सकते है दुनिया में जितने पागल हैं उसमें से सौ में से नब्बे संख्या उन लोगों की है जिन्होंने सेक्स की शक्ति को दबाने की कोशिश की है-

जो व्यक्ति अनायास ही अपने सेक्स को दबाता है तो दबा हुआ सेक्स विक्षिप्तता पैदा करता है अनेक बीमारियां पैदा करता है तथा अनेक मानसिक रोग पैदा करता है मतलब ये है कि सेक्स को दबाने की जो भी चेष्टा है वह भी एक पागलपन है-

कई योगी योग साधना से सेक्स को दबाने का अथक प्रयास में और बिना गुरु सानिध्य के पागल होते देखे गए है क्युकि वो नहीं समझते है कि सेक्स को दबाया नहीं जाता है अपनी सेक्स की शक्ति को उर्ध्वामुखी करके जो शक्ति प्राप्त होती है वो धीरे से प्रेम के प्रकाश में परिणित हो जाती है वो ही आपका प्रेम का प्रकाश बन जाती है क्युकि प्रेम सेक्स का क्रिएटिव उपयोग है और उसका सृजनात्मक उपयोग है इसलिए आप प्रेम को विस्तीर्ण करें और जीवन को प्रेम से भरें-

छोटे-छोटे बच्चे प्रेम चाहते हैं तो मां उनको प्रेम देती है फिर वे बड़े होते हैं और वे और लोगों से भी प्रेम चाहते हैं तो परिवार भी उनको प्रेम देता है फिर वे और बड़े होते हैं अगर वे पति हुए तो अपनी पत्नियों से प्रेम चाहते हैं अगर वे पत्नियां हुईं  तो वे अपने पतियों से प्रेम चाहती हैं और जो भी प्रेम चाहता है वह दुख झेलता है क्योंकि प्रेम चाहा नहीं जा सकता है प्रेम केवल किया जाता है चाहने में पक्का नहीं है मिलेगा या नहीं मिलेगा और जिससे तुम चाह रहे हो ये जरुरी भी नहीं कि वह भी तुमसे चाहेगा तब तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी तब तो दोनों भिखारी मिल जाएंगे और एक दूसरे से प्रेम की भीख मांगेंगे-

दुनिया में जितना पति-पत्नियों का संघर्ष है उसका केवल एक ही कारण है कि वे दोनों एक-दूसरे से प्रेम चाह रहे हैं लेकिन सत्य ये भी है कि देने में कोई भी समर्थ नहीं है बस एक दूसरे से ये कहते हुए बिलकुल भी नहीं थकते है कि हम आपको बहुत दिलो जान से प्यार करते हैं अगर वास्तविक प्रेम कर लेगें तो फिर आपके बीच सेक्स का कोई स्थान ही नहीं रह जाएगा इस लिए बस एक दूसरे को बस भरोषा ही केवल दिए जा रहे है-

प्रेम करना और प्रेम चाहना ये दोनों बड़ी अलग बातें हैं हममें से अधिक लोग प्रेम की पढ़ाई में बच्चे ही रहकर मर जाते हैं क्योंकि हरेक आदमी प्रेम चाहता है लेकिन प्रेम करना बहुत बड़ी अदभुत बात है और प्रेम चाहना बिलकुल बच्चों जैसी बात है-

आजकल तो दुनिया में दाम्पत्य जीवन एक नर्क बना हुआ है क्योंकि हम सब प्रेम मांगते हैं लेकिन देना कोई भी जानता नहीं है बस सारे झगड़े के पीछे बुनियादी कारण इतना ही है और कितना ही परिवर्तन हो किसी तरह के विवाह हों या किसी तरह की समाज व्यवस्था बने लेकिन जब तक वो ये नहीं समझेगें कि प्रेम दिया जाता है जबकि प्रेम मांगा नहीं जाता है और सिर्फ और सिर्फ दिया जाता है-

जबकि प्रेम वह प्रसाद है उसका कोई मूल्य नहीं है प्रेम दिया जाता है तब जो मिलता है वह ही उसका प्रसाद है वह उसका मूल्य नहीं है यदि वापस कुछ नहीं मिलेगा तो भी देने वाले का आनंद ही होगा कि उसने दिया है- 

अगर पति-पत्नी एक-दूसरे को प्रेम देना शुरू कर दें और मांगना बंद कर दें तो जीवन स्वर्ग बन सकता है और जितना वे प्रेम देंगे और मांगना बंद कर देंगे तो सच माने उतना ही अदभुत जगत की व्यवस्था है उन्हें प्रेम मिलेगा और उतना ही वे अदभुत अनुभव करेंगे जितना वे प्रेम देंगे हाँ उतना ही सेक्स उनका विलीन होता चला जाएगा-

एक उदहारण देकर एक सत्य कथा से समझने का प्रयास करे तो शायद ही आपको समझ आ जाए गांधी जी एक बार लंका गए और उनके साथ उनकी पत्नी कस्तूरबा भी गई तो वहां जो व्यक्ति था जिसने उनका परिचय दिया पहली सभा में चूँकि उसने समझा कि माँ आयी हैं साथ और शायद ये गांधी जी की मां होंगी तो उसने गांधी जी का परिचय देते हुए कहा कि ‘यह बड़े सौभाग्य की बात है कि गांधी जी भी आए हैं और उनकी मां भी आयी हुई हैं-

ये सुन कर कस्तूरबा तो बहुत हैरान हो गयीं और गांधी जी के सेक्रेटरी जो साथ थे वे भी बहुत घबड़ा गए कि भूल तो उनकी है उनको परिचय देने वाले को पहले से बताना चाहिए था कि कौन साथ में है तो वे बड़े घबड़ा गए कि शायद बापू डांटेंगे और शायद कहेंगे कि ‘यह क्या भद्दी बात करवायी-लेकिन गांधी जी ने जो बात कही-वह बड़ी ही अदभुत थी-

उन्होंने कहा कि ‘मेरे इन भाई ने मेरा जो परिचय दिया है उसमें भूल से एक सच्ची बात कह दी है कि कुछ वर्षों से कस्तूरबा मेरी पत्नी नहीं है मेरी मां हो गयी है और वास्तव में सच्चा संन्यासी वह है जिसकी एक दिन पत्नी मां हो जाए न कि पत्नी को छोड़कर भाग जाने वाला नहीं और सच्ची संन्यासिनी वह है जो एक दिन अपने पति को अपने पुत्र की तरह अनुभव कर पाए- 

पुराने ऋषि सूत्रों में एक अदभुत बात कही गयी है पुराने काल में ऋषि कभी आशीर्वाद देता था कि ‘तुम्हारे दस पुत्र हों और ईश्वर करे, ग्यारहवां पुत्र तुम्हारा पति हो जाए’ वास्तव में ये बड़ी अदभुत बात थी ऋषि ये आशीर्वाद देते थे वधु को विवाह करते वक्त कि ‘तुम्हारे दस पुत्र हों और ईश्वर करे, तुम्हारा ग्यारहवां पुत्र तुम्हारा पति हो जाए’ यह अदभुत कौम थी और अदभुत विचार थे और इसके पीछे एक बड़ा रहस्य था-

अगर पति और पत्नी में प्रेम बढ़ेगा तो वे पति-पत्नी नहीं रह जाएंगे अर्थात उनके संबंध कुछ और हो जाएंगे और उनके पास से सेक्स विलीन हो जाएगा और फिर वे संबंध सात्विक प्रेम के होंगे चूँकि जब तक सेक्स है तब तक शोषण है

सेक्स वास्तविक में एक प्रकार का शोषण है और जिसको हम प्रेम करते हैं फिर उसका शोषण कैसे कर सकते हैं? सेक्स एक व्यक्ति का एक जीवित व्यक्ति का अत्यंत गर्हित और निम्न उपयोग है अगर हम उसे प्रेम कर सकते हैं तो हम उसके साथ ऐसा उपयोग कैसे कर सकते हैं? एक जीवित व्यक्ति का हम ऐसा उपयोग कैसे कर सकते हैं अगर हम उसे प्रेम करते हैं? जितना प्रेम गहरा होगा वह उपयोग विलीन हो जाएगा और जितना प्रेम कम होगा वह उपयोग और शोषण उतना ज्यादा हो जाएगा-

सेक्स एक सृजनात्मक शक्ति कैसे बने कि सेक्स बड़ी अदभुत शक्ति है और शायद इस जमीन पर सेक्स से बड़ी कोई शक्ति नहीं है मनुष्य के जीवन का नब्बे प्रतिशत हिस्सा जिस चक्र पर घूमता है वह सेक्स है वह परमात्मा नहीं है और वे लोग तो बहुत कम हैं जिनका जीवन परमात्मा की परिधि पर घूमता है अधिकतर लोग सेक्स के केंद्र पर घूमते और जीवित रहते हैं हाँ शायद अज्ञानता वश वो सेक्स को ही प्रेम समझ बैठे है-

जबकि सेक्स सबसे बड़ी शक्ति है यानि अगर आप ठीक से समझें तो मनुष्य के भीतर सेक्स के अतिरिक्त और शक्ति ही क्या है जो उसे गतिमान करती है परिचालित करती है इस सेक्स की शक्ति को ही वास्तविक और सात्विक प्रेम में परिवर्तित किया जा सकता है और यही शक्ति परिवर्तित होकर परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग बन जाती है-लेकिन ये भी सत्य है कि इसके लिए आपको एक सद्गुरु की आवश्यकता होगी जो अब इस संसार में नाम मात्र ही है या आप ये समझ लीजिये आप उनसे कोसों दूर है क्यूंकि माया मोह लोभ लालच से सद्गुरु की प्राप्ति संभव नहीं है जो आपके अंदर के सेक्स को उन्मुक्त अवस्था में लाकर परमात्मा के दर्शन करा सकें-

गुरु चरण वन्दनं-

Upcharऔर प्रयोग-

27 मई 2017

कोई और नहीं बस मैं!

क्योंकर अक्सर ऐसा होता है मैं होता हूँ ख़ुद  ही ख़ुद के साथ
कोई और नहीं बस मैं
लड़ता हूँ झगड़ता हूँ उलझता हूँ बस यूँ ही ख़ुद के साथ
कोई और नहीं बस मैं
एक बड़ा समंदर होता है जो चाँद निगलकर सोता है
उस आधे दिखते चाँद संग मैं भी डूबा करता हूँ
कोई और नहीं बस मैं
हर वक़्त मुझे जाने का एक खौफ सताया करता है
जलता हूँ बुझता हूँ डरता हूँ संभलता हूँ फिर डर से लड़ जाता हूँ
कोई और नहीं बस मैं 
ये दुनिया चलती रहती है कुछ कहती कुछ सुनती रहती है
लाख मलामत देती है पर मैं बेहया, बेशर्म, बेमुरव्वत हो जाता हूँ
कोई और नहीं बस मैं
कुछ नन्हे सफ़ेद कबूतर पाले हैं मैंने, ये उड़ते हैं गिर पड़ते हैं अभी छोटे हैं
इक रोज़ जब ये बड़े हो जायेंगे अपने पंख फड़फड़ाएंगे,
किसी बड़े मैदान में, खुले आसमान में ये उड़ते जायेंगे, ऊपर, और ऊपर , सबसे ऊपर
वो वहां से फिर किसी नन्हे कबूतर से ही नज़र आयेंगे,
उस रोज़ मैं आज़ाद हो जाऊँगा सुकून से जाऊँगा
कोई और नहीं बस मैं !

लव तोमर 

25 मई 2017

रमेशराज के प्रेमपरक दोहे




रमेशराज के प्रेमपरक दोहे 
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तुमसे अभिधा व्यंजना तुम रति-लक्षण-सार
हर उपमान प्रतीक में प्रिये तुम्हारा प्यार |
+रमेशराज

+मंद-मंद मुसकान में सहमति का अनुप्रास
जीवन-भर यूं ही मिले यह रति का अनुप्रास |
+रमेशराज


तुमसे कविता में यमक तुमसे आता श्लेष
तुमसे उपमाएं मधुर तुम रति का परिवेश |
+रमेशराज

तुमसे मिलकर यूं लगे एक नहीं हर बार
सूरज की पहली किरण प्रिये तुम्हारा प्यार |
+रमेशराज

गहरे तम के बीच में तुम प्रातः का ओज
तुमसे ही खिलता प्रिये मन के बीच सरोज |
+रमेशराज

नयन कमल से किन्तु हैं उनके वाण अचूक
बोल तुम्हारे यूं लगें ज्यों कोयल की कूक |
+रमेशराज

और चलाओ मत प्रिये यूं नैनों के वाण
होने को है ये हृदय अब मानो निष्प्राण |
+रमेशराज

तुम प्रत्यय-उपसर्ग-सी तुम ही संधि-समास
शब्द-शब्द वक्रोक्ति की तुमसे बढ़े मिठास |
+रमेशराज

तुम लोकोक्ति-मुहावरा तुम शब्दों की शक्ति
तुमसे गूंगी वेदना पा जाती अभिव्यक्ति |
+रमेशराज

चन्दन बीच सुगंध तुम पुष्पों में बहुरंग
हर पल चंदा से दिपें प्रिये तुम्हारे अंग |
+रमेशराज

छा जाता आलोक-सा मन के चारों ओर
गहरे तम के बीच प्रिय तुम करती हो भोर |
+रमेशराज

कमल खिलें, कलियाँ हंसें तुम वो सुखद प्रभात
तुम्हें देख जल से भरें सूखे हुए प्रपात |
+रमेशराज

तन में कम्पन की लहर प्रिये उठे हर बार
तुमको छूकर ये लगे तुम बिजली का तार |
+रमेशराज

तुम सावन का गीत हो झूला और मल्हार
रिमझिम-रिमझिम बरसता प्रिये तुम्हारा प्यार |
+रमेशराज
     

प्रिये तुम्हें लखि मन खिला, मौन हुआ वाचाल
कुंदन-काया कामिनी कल दो करो निहाल |
+रमेशराज 

तू ही तो रति-भाव है, यति गति लय तुक छंद
प्रिय तेरे कारण बसा कविता में मकरंद |

+रमेशराज
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Rameshraj, 15/109, Isanagar, Aligarh-202001
Mo.-9634551630

22 मई 2017

रमेशराज 6 चतुष्पदियाँ





रमेशराज 6 चतुष्पदियाँ 
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1. 
नेता बाँट रहे हैं नोट
सोच-समझ कर देना वोट
कल मारेंगे तुझको लात
आज रहे जो पांवों लोट |
+रमेशराज
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2.  
पी पऊआ, नाली में लोट
दे बेटा गुंडों को वोट,
यही चरेंगे गद्दी बैठ
तेरे हिस्से के अखरोट |
+रमेशराज  

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3.
भारत माता भारत माता भारत माता की जै रे
कमरतोड़ महगाई से तू थोड़ी-सी राहत दै रे ,
सँग भारत माता के तेरी भी जय-जय हम बोलेंगे
लालाजी नहीं अरे जनता की सुख से झोली भरी दै रे |
+रमेशराज    
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4.
हमको सत्ता-धर्म निभाना अच्छा लगता है
आज अदीबों को गरियाना अच्छा लगता है,
कहने को हम कवि की दम हैं बाल्मीकि के वंशज पर
कवि-कुल को गद्दार बताना अच्छा लगता है |
+रमेशराज
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5.
सच्चे को मक्कार बताने का अब मौसम है
गर्दन को तलवार बताने का अब मौसम है ,
जनता की रक्षा को आतुर अरे जटायू सुन
तुझको भी गद्दार बताने का अब मौसम है |
+रमेशराज
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6.
गिरगिट जैसे रन्ग बदलने का अब मौसम है
सच के मुँह पर कालिख मलने का अब मौसम है,
पुरस्कार लौटाकर तू गद्दार कहाएगा
बाजारू सिक्कों में ढलने का अब मौसम है |

+रमेशराज
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15/109, ईसानगर, अलीगढ़ 
मो.-९६३४५५१६३०

18 मई 2017

रमेशराज के 10 मुक्तक




रमेशराज के मुक्तक 
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1.
“असुर ” कहो या बोलो-“ खल हैं “
हम मल होकर भी निर्मल हैं |
साथ तुम्हारे ‘ सच ‘ होगा पर-
अपने साथ न्यूज-चैनल हैं ||
+रमेशराज
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2.
जटा रखाकर आया है, नवतिलक लगाकर आया है
मालाएं-पीले वस्त्र पहन, तन भस्म सजाकर आया है
जग के बीच जटायू सुन फिर से होगा भारी क्रन्दन  
सीता के सम्मुख फिर रावण झोली फैलाकर आया है |
+रमेशराज

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3.
गाली देते प्रातः देखे, संध्याएँ पत्थरबाज़ मिलीं
ईसा-सी, गौतम-गाँधी-सी संज्ञाएँ पत्थरबाज़ मिलीं |
कटुवचन-भरा, विषवमन भरा भाषा के भीतर प्रेम मिला
अब सारी चैन-अमन वाली कविताएँ पत्थरबाज़ मिलीं |
+रमेशराज     

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4. 
हम शीश झुकाना भूल गये
सम्मान जताना भूल गये,
तेज़ाब डालते नारी पर
अब प्यार निभाना भूल गये |
+रमेशराज 

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5.
ये टाट हमेशा हारेंगे चादर-कालीनें जीतेंगे
तू सबको रोज नचाएगा तेरी ये बीनें जीतेंगी |
तू सबसे बड़ा खिलाड़ी है इस भ्रम में प्यारे मत जीना
ये सफल हमेशा चाल न हो , मत सोच मशीनें जीतेंगी ||
+रमेशराज

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6.
बस यही फैसला अच्छा है
मद-मर्दन खल का अच्छा है |
जो इज्जत लूटे नारी की
फांसी पर लटका अच्छा है ||
+रमेशराज


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7.
सब हिस्से के इतवार गये
त्यौहार गये सुख-सार गये,
हम मोहरे बने सियासत के 
वे जीत गये हम हार गये
+रमेशराज 
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8.
मिलता नहीं पेट-भर भोजन अब आधी आबादी को
नयी गुलामी जकड़ रही है जन-जन की आज़ादी को |
भारत की जनता की चीख़ें इन्हें सुनायी कम देतीं
हिन्दुस्तानी चैनल सारे ढूंढ रहे बगदादी को ||
+रमेशराज
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9.
पेड़ों से बौर छीन लेगा
खुशियों का दौर छीन लेगा |
हम यूं ही गर खामोश रहे
वो मुँह का कौर छीन लेगा ||
+रमेशराज 


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10.
केसरिया बौछार मुबारक
होली का त्यौहार मुबारक |
जो न लड़ा जनता की खातिर
उस विपक्ष को हार मुबारक ||
+रमेशराज


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रमेशराज, 15/109 ईसा नगर, अलीगढ़-२०२००१ 
मो.-९६३४५५१६३०