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18 मई 2017

हिंदी की संवैधानिक स्थिति....बृजेन्द्र कुमार अग्निहोत्री

हिंदी किसी एक भाषा का नहीं, अपितु एक भाषा समष्टि का नाम भी है। भारत के विशाल परिक्षेत्र में फैली भाषा के क्षेत्रीय भेद होने स्वाभाविक हैं। इन भेदों में से अनेक में साहित्य-रचना का होना संभव है। अनेक भेद ऐसे भी हो सकते हैं जो मौखिक व्यवहार रूप में ही प्रयुक्त होंगे, और जिनमें केवल लोक-साहित्य ही उपलब्ध होंगे। यही स्थिति हिंदी की भी है। हिंदी के अनेक रूप ऐसे हैं, जिनमें साहित्यिक-रचना होती है और अनेक रूप ऐसे हैं जो केवल अपने-अपने क्षेत्र में जनसाधारण के व्यवहार में ही प्रयुक्त होते हैं। उन रूपों को जिनमें यथेष्ट साहित्य रचा जा चुका है, साहित्यिक रूप कि संज्ञा दी गयी है और शेष को ग्रामीण रूप कहा गया है।
हिंदी का राष्ट्रभाषा के रूप में प्रयोग भारतीय संविधान में कहीं नहीं है। हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता स्वतंत्रता आंदोलन में देश के नेताओं ने देश को एकता के सूत्र में बाँधने के लिए दी थी; क्योंकि हिंदी ही भारत कि एक ऐसी भाषा थी जो देश में सर्वाधिक लोगों द्वारा बोली और समझी जाती थी। स्वतंत्रता आंदोलन को देशव्यापी बनाने के लिए आवश्यकता इस बात की थी कि कोई ऐसी भाषा चुनी जाये, जिसके माध्यम से स्वाधीन भारत का उद्घोष सारे देश में फ़ैल सके। समय की माँग को देखते हुए भारतीय नेताओं ने, चाहे उनका सम्बन्ध देश के किसी भी कोने से रहा हो, यह अनुभव किया कि सारे देश की भाषा यदि कोई भाषा हो सकती है तो वह "हिंदी" ही है, और हिंदी को ही संपूर्ण देश के लिए संपर्क भाषा बनाने का निश्चय किया गया। "गुजरात के महात्मा गाँधी, कश्मीर के जवाहरलाल नेहरू, महाराष्ट्र के लोकमान्य तिलक, बंगाल के रवीन्द्रनाथ ठाकुर, पंजाब के लाला लाजपतराय, दक्षिण के चक्रवर्ती राजगोपालाचारी आदि अनेक नेताओं एक स्वर से हिंदी को "राष्ट्रभाषा" घोषित किया। हिंदी स्वतंत्रता आंदोलन में शंखनाद की भाषा बनी।"01
भारत के स्वाधीन होने पर जब संविधान में देश कि प्रधान भाषा होने कि बात उठी तो "राष्ट्रभाषा" कि संकल्पना जो स्वतंत्रता के पूर्व थी, नहीं रही। स्वतंत्रता के पूर्व जो छोटे-बड़े नेता राष्ट्रभाषा या राजभाषा के रूप में हिंदी को अपनाने के मुद्दे पर सहमत थे, उनमें से अधिकांश गैर-हिंदी भाषी नेता "हिंदी" के नाम पर बिदकने लगे। अब राष्ट्रभाषा का अर्थ राष्ट्र की भाषा से लिया गया और सभी भारतीय भाषाओं को राष्ट्रभाषा माना गया। राष्ट्र की प्रमुख भाषाओं की गणना अष्टम अनुसूची में की गयी और अन्य चौदह भाषाओं के साथ हिंदी को भी स्थान दिया गया। "संविधान सभा में केवल हिंदी पर विचार नहीं हुआ; राजभाषा के नाम पर जो बहस 11 सितंबर, 1949 ई. से 14 सितम्बर 1949 ई. तक हुई, उसमें हिंदी, अंग्रेज़ी, संस्कृत एवं हिन्दुस्तानी के दावे पर विचार किया गया।"02
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि संघर्ष की स्थिति सिर्फ़ हिंदी और अंग्रेज़ी के समर्थकों के मध्य ही देखने को मिली। आज़ाद भारत में के विदेशी भाषा (अंग्रेज़ी), जिसे देश की बहुत कम आबादी ही पढ़-लिख-समझ सकती थी, देश की राजभाषा नहीं बन सकती थी। हिंदी देश की जनता की भाषा थी। देश की लगभग आधी आबादी हिंदी को उपयोग में लाती थी, इसलिए हिंदी का दावा न्याययुक्त था। संविधान सभा के भीतर और बाहर हिंदी के विपुल समर्थन को देखकर संविधान सभा ने हिंदी के पक्ष में अपना फ़ैसला दिया।
संविधान में हिंदी को राजभाषा का दर्जा देते हुए उसके स्वरूप, क्षेत्र और दायित्वों का विवेचन विस्तार से किया गया है। संविधान में अनुच्छेद-120 और 210 के अतिरिक्त 343 से 351 तक (2+9) ग्यारह अनुच्छेदों में संघ और राज्यों के सरकारी प्रयोजनों के लिए संसद और विधानमंडलों में प्रयुक्त होने वाली भाषा, न्यायालयों में प्रयुक्त भाषा, संघ और राज्यों के बीच प्रयुक्त होने वाली भाषा और राज्यों के आपस में संप्रेषण माध्यम के रूप में प्रयुक्त होने वाली भाषा के संबंध में अलग-अलग व्यवस्था दी गयी है। अनुच्छेद-120 के अनुसार- "संसद का कार्य हिंदी में या अंग्रेज़ी में किया जायेगा, परन्तु यथास्थिति लोकसभाध्यक्ष या राज्यसभा का सभापति किसी सदस्य को उसकी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की अनुमति दे सकता है। संसद विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तो 15 वर्ष की अवधि के पश्चात "या अंग्रेज़ी में" शब्दों का लोप किया जा सकेगा।"03
अनुच्छेद-210 उपरोक्त व्यवस्था राज्यों के विधानमंडलों में प्रयुक्त होने वाली भाषाओं के संबंध में प्रदान करता है। अनुच्छेद-343 में संघ की राजभाषा "हिंदी" और लिपि "देवनागरी" को घोषित किया गया है। अंकों का प्रयोग वही होगा जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चलन में है। अनुच्छेद-344 राष्ट्रपति द्वारा राजभाषा आयोग एवं समिति के गठन से संबंधित है। अनुच्छेद-345, 346 और 347 में प्रादेशिक भाषाओं से संबंधित प्रावधान हैं। अनुच्छेद-348 में उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों, संसद और विधानमंडलों में प्रस्तुत विधेयकों की भाषा के संबंध में विस्तार से प्रकाश डाला गया है। अनुच्छेद-349 में भाषा से संबंधित विधियाँ अधिनियमित करने की प्रक्रिया का वर्णन है। अनुच्छेद-350 में जनसाधारण की शिकायतें दूर करने के लिए आवेदन में प्रयुक्त की जाने वाली भाषा तथा प्राथमिक स्तर पर शिक्षण-सुविधाएँ देने और भाषायी अल्पसंख्यकों के बारे में दिशा-निर्देश देने का प्रावधान है। अनुच्छेद-351 में सरकार के उन कर्तव्यों और दायित्वों का उल्लेख किया गया है, जिनका पालन हिंदी के प्रचार-प्रसार और विकास के लिए सरकार को करना है। उपरोक्त के अतिरिक्त राष्ट्रपति ने अधिसूचना सं. 59/2/54, दिनांक : 03-12-1955 के द्वारा "सरकारी प्रयोजनों के हिंदी भाषा आदेश, 1955" को जारी किया है, जिसके द्वारा अंग्रेज़ी के साथ हिंदी का प्रयोग निम्नलिखित कार्यों हेतु किया जा सकता है-
- जनता के साथ पत्र-व्यवहार के लिए।
- प्रशासनिक रिपोर्ट, सरकारी संकल्प, संसद में प्रस्तुत की जाने वाली रिपोर्ट के लिए।
- हिंदी-भाषी राज्यों के साथ पत्र-व्यवहार के लिए।
- अन्य देश की सरकारों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के साथ पत्र-व्यवहार के लिए।
- संधियों एवं ऋणों के लिए।04

संविधान के अनुच्छेद-343 के अनुसार- 15 वर्षों की अवधि के बाद अर्थात् 1965 ई. में हिंदी को पूर्णतया अंग्रेज़ी का स्थान लेना था, किंतु जब यह देखा गया (या यह कहें कि राजनीतिक स्वार्थों के कारण) हिंदी सरकारी कार्यालयों में लोकप्रियता से वंचित है तो संसद को 1965 के बाद भी अंग्रेज़ी का प्रयोग जारी रखने के लिए अधिनियम बनाना पड़ा। इस अधिनियम में जो धाराएँ हैं, उनमें मुख्यतः इन बातों का उल्लेख है-
"धारा-3(i) में यह व्यवस्था है कि संविधान के प्रारंभ से 15 वर्ष की कालावधि समाप्त हो जाने पर भी हिंदी के अतिरिक्त अंग्रेज़ी भाषा संघ के उन सब शासकीय प्रयोजनों के लिए, जिनके लिए वह उस दिन तक के ठीक पहले लायी जाती थी तथा 3(ख) संसद में कार्य के संव्यवहार के लिए प्रयोग में लायी जाती रह सकेगी।"05
इस अधिनियम की धारा-4 के अनुसार- राजभाषा के संबंध में एक संसदीय समिति गठित की गयी थी, जो अभी तक अपना कर रही है। साथ ही सन 1968 ई. में राजभाषा के संबंध में एक संकल्प पारित किया गया, जिसमें सरकार द्वारा हिंदी के प्रगामी प्रयोग के संबंध में वार्षिक मूल्यांकन रिपोर्ट संसद में प्रस्तुत करने की व्यवस्था है। सन 1975 ई. में गृह मंत्रालय के अंतर्गत राजभाषा विभाग की स्थापना की गई है, जिससे कि केंद्रीय सरकार के कार्यालयों में हिंदी के प्रयोग को तेज़ी से बढ़ाया जा सके।
संविधान में हिंदी को यह स्थान इसलिए नहीं दिया गया था कि यह देश की सबसे प्राचीन या समृद्ध भाषा है, बल्कि इसलिए दिया गया था क्योंकि यह भाषा भारत के अधिकांश भागों में अधिकतर लोगों द्वारा बोली और समझी जाती है। श्री नर्मदेश्वर चतुर्वेदी के शब्दों में- "हिंदी वास्तव में किसी एक ही भाषा अथवा बोली का नाम नहीं है, अपितु एक सामासिक भाषा परंपरा की संज्ञा है, जिसका आकार-प्रकार विभिन्न उपभाषाओं और बोलियों के ताने-बने द्वारा निर्मित हुआ है।"06
इस प्रकार हिंदी एक भाषा समष्टि का नाम है। इसकी पुष्टि संविधान के अनुच्छेद-351 में हिंदी के विकास के लिए जो निर्देश दिए गये हैं, से भी होती है। इसके अनुसार- "हिंदी में शब्द मूलतः संस्कृत से या गौणतः अन्य भारतीय भाषाओं से लिए जाएँ। भारत की प्रायः सभी भाषाओं पर संस्कृत का अमिट प्रभाव है।"07
कोई भी भाषा केवल प्रयोग से समृद्ध होती है। भाषा किसी प्रयोगशाला में तैयार करने के बाद रिवाज़ या चलन में नहीं लायी जाती। अति-समृद्ध और भारत में हिंदी की "सौत" का दर्जा पाने वाली अंग्रेज़ी भाषा का ही उद्धरण ही लें- "1362 तक इंग्लैंड की राजभाषा फ्रेंच के स्थान पर अंग्रेज़ी होगी, विदेशी भाषा नहीं। तीन महीने बाद ही पहली जनवरी 1963 से अंग्रेज़ी प्रशासन का माध्यम बन गयी।"08
"1700 ई. तक अर्थात् शेक्सपीयर के 100 वर्ष बाद तक पढ़े-लिखे लोग अंग्रेज़ी को गँवारू भाषा कहते रहे, परंतु अंग्रेज़ी चलती रही और उसका विकास होता रहा।"09
उपरोक्त प्रथम उद्धरण उस देश की संकल्प-शक्ति को दर्शाता है। साथ ही हमें यह एहसास भी दिलाता है कि हमारे संविधान निर्माताओं की निर्बल इच्छाशक्ति का फल "हिंदी" भुगत रही है। वहीं दूसरा उद्धरण यह विश्वास दिलाता है कि एक न एक दिन "हिंदी" अपने वैभव व वास्तविक संवैधानिक स्थान को अवश्य प्राप्त करेगी।
संकुचित राजनैतिक स्वार्थों के कारण हिंदी के समक्ष बिखराव की समस्या प्रायः उत्पन्न होती रही है। संविधान द्वारा हिंदी को सरकारी काम-काज की भाषा घोषित कर देने के बाद, यह एक चर्चा का मुद्दा बन गया, जो निर्धारित रूपरेखा से बिलकुल भिन्न रहा। अज्ञानतावश प्रतिक्रियास्वरूप इसे कहीं राजनैतिक विवाद का मुद्दा बना लिया जाता है, और कहीं रोज़ी-रोटी के सवाल के साथ जोड़ दिया जाता है। आज भी यह स्वर कहीं न कहीं सुनाई पड़ जाता है-

"हिंदी थोपी जा रही है….."
या 
"हिंदी लादी जा रही है…"
अथवा 
"हिंदी औपनिवेशिक भाषा है…"

यहाँ विचारणीय यह है कि प्रजातंत्र में थोपने-लादने कि स्थिति क्या हो सकती है…? हमें स्वयं इस तथ्य की तह तक पहुँचकर यह विचार करना चाहिए कि जो भाषा संपूर्ण भारत में एकता स्थापित करने के लिए "राजभाषा" घोषित की गयी है। जो भाषा देश की भावात्मक एकता को मज़बूती से बाँधे हुए है; उसके लिए "लादने" और "थोपने" जैसे शब्दों का प्रयोग कितना उचित है? क्या हमें उसे सामान्य व्यवहार का सशक्त उपकरण नहीं मानना चाहिए? जब किसी देश में कोई भाषा दो तिहाई से अधिक लोगों द्वारा बोली जाती है तो क्या उसे उस देश या संघ की भाषा का दर्जा नहीं मिलना चाहिए?
संविधान के अनुच्छेद-३५१ के अनुसार- "हिंदी को विकसित और समृद्ध करने की जिम्मेदारी केंद्र सरकार की है।"10
तो हमारी जिम्मेदारी क्या है? संविधान के प्राविधानों का पालन करने-कराने का दायित्व क्या केवल सरकार का है, क्या जनता का कोई दायित्व नहीं है? ध्यातव्य है कि संविधान के सभी प्राविधान देश की जनता के लिए होते हैं, और जनता के रोज़ के क्रियाकलापों को प्रभावित करते हैं। इसलिए देश की जनता का भी यह कर्तव्य है कि वह हिंदी का प्रसार बढ़ाने और उसके विकास में भरपूर योगदान करे।











डॉ. बृजेन्द्र कुमार अग्निहोत्री 
हिंदी विभाग, सिक्किम विश्वविद्यालय 
5 मील, गंगटोक, सिक्किम - 737102

संदर्भ-

१- हिंदी और उसकी उपभाषाएं- विमलेश कांति वर्मा, प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, नई दिल्ली, सं. 1995, पृष्ठ-66
२- सामान्य हिंदी- संजीव कुमार, लुसेंट पब्लिकेशन, पटना, सं. 2011, पृष्ठ-08 
३- सामान्य हिंदी- संजीव कुमार, लुसेंट पब्लिकेशन, पटना, सं. 2011, पृष्ठ-09
४- हिंदी- डॉ. अशोक तिवारी, साहित्य भवन, आगरा, सं.2012, पृष्ठ-24 
५- हिंदी : भाषा, राजभाषा और लिपि- परमानंद पांचाल, हिंदी बुक सेंटर, नई दिल्ली, सं. 2001, पृष्ठ-124
६- हिंदी : भाषा, राजभाषा और लिपि- परमानंद पांचाल, हिंदी बुक सेंटर, नई दिल्ली, सं. 2001, पृष्ठ-110
७- हिंदी : भाषा, राजभाषा और लिपि- परमानंद पांचाल, हिंदी बुक सेंटर, नई दिल्ली, सं. 2001, पृष्ठ-161 
८- हिंदी : भाषा, राजभाषा और लिपि- परमानंद पांचाल, हिंदी बुक सेंटर, नई दिल्ली, सं. 2001, पृष्ठ-137
९- हिंदी : भाषा, राजभाषा और लिपि- परमानंद पांचाल, हिंदी बुक सेंटर, नई दिल्ली, सं. 2001, पृष्ठ-137
१०- राजभाषा हिंदी : प्रगति और प्रयाण- सं. डॉ. इकबाल अहमद, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, सं. 2000, पृष्ठ-24

11 टिप्‍पणियां:

  1. हिंदी भाषा को लेकर बेहद सुंदर, सामयिक और मर्मस्पर्शी आलेख | यशोदा जी हार्दिक बधाई

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  2. हिंदी भाषा को समृद्धि प्रदान करता आलेख |डॉ.बृजेश जी को सादर नमन

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  3. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’अफवाहों के मकड़जाल में न फँसें, ब्लॉग बुलेटिन पढ़ें’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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  4. हिंदी पर पिछले माह गरमागरम बहस चली जब सरकारी घोषणा सामने आयी कि अब राष्ट्रपति ,उप-राष्ट्रपति ,प्रधानमंत्री समेत सभी मंत्री अपना भाषण हिंदी भाषा में ही देंगे जिसे महामहिम राष्ट्रपति महोदय ने अपनी मंज़ूरी प्रदान कर दी है। हिंदी प्रेमियों के लिए यह अत्यंत ख़ुशी का बिषय रहा। लेकिन अब भी हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं राजभाषा का ही दर्ज़ा लेकर अंग्रेज़ी से पिछड़ रही है।
    नई पीढ़ी अब शुद्ध हिंदी भी नहीं लिख पाती है जोकि रोमन लिपि में हिंदी लिखने को ज़्यादा सहूलियत मानती है।
    हिंदी भाषा की संवैधानिक स्थिति पर प्रकाशित यह आलेख विचारणीय है। लेखक धन्यवाद के पात्र हैं वहीँ पाँच लिंकों का आनंद में चर्चा के लिए सम्मिलित करने के लिए बहन यशोदा जी को भी धन्यवाद।

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  5. हिंदी पर पिछले माह गरमागरम बहस चली जब सरकारी घोषणा सामने आयी कि अब राष्ट्रपति ,उप-राष्ट्रपति ,प्रधानमंत्री समेत सभी मंत्री अपना भाषण हिंदी भाषा में ही देंगे जिसे महामहिम राष्ट्रपति महोदय ने अपनी मंज़ूरी प्रदान कर दी है। हिंदी प्रेमियों के लिए यह अत्यंत ख़ुशी का बिषय रहा। लेकिन अब भी हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं राजभाषा का ही दर्ज़ा लेकर अंग्रेज़ी से पिछड़ रही है।
    नई पीढ़ी अब शुद्ध हिंदी भी नहीं लिख पाती है जोकि रोमन लिपि में हिंदी लिखने को ज़्यादा सहूलियत मानती है।
    हिंदी भाषा की संवैधानिक स्थिति पर प्रकाशित यह आलेख विचारणीय है। लेखक धन्यवाद के पात्र हैं वहीँ पाँच लिंकों का आनंद में चर्चा के लिए सम्मिलित करने के लिए बहन यशोदा जी को भी धन्यवाद।

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