ब्लौग सेतु....

10 मई 2017

..... गुम होता बचपन :)


ज़िदगी की शोर में
गुम मासूमियत
बहुत ढ़ूँढ़ा पर
गलियों, मैदानों में
नज़र नहीं आयी,
अल्हड़ अदाएँ,
खिलखिलाती हंसी
जाने किस मोड़ पे
हाथ छोड़ गयी,
शरारतें वो बदमाशियाँ
जाने कहाँ मुँह मोड़ गयी,
सतरंगी ख्वाब आँखों के,
आईने की परछाईयाँ,
अज़नबी सी हो गयी,
जो खुशबू बिखेरते थे,
उड़ते तितलियों के परों पे,
सारा जहां पा जाते थे,
नन्हें नन्हें सपने,
जो रोते रोते मुस्कुराते थे,
बंद कमरों के ऊँची
चारदीवारी में कैद,
हसरतों और आशाओं का
बोझा लादे हुए,
बस भागे जा रहे है,
अंधाधुंध, सरपट
ज़िदगी की दौड़ में
शामिल होती मासूमियत,
सबको आसमां छूने की
जल्दबाजी है।

लेखक परिचय -  #श्वेता सिन्हा   
  

17 टिप्‍पणियां:

  1. वाह ! ,बेजोड़ पंक्तियाँ ,सुन्दर अभिव्यक्ति ,आभार। "एकलव्य"

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  2. आभार दी आपका बहुत सारा शुक्रिया।।

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  3. संजय जी मेरा सौभाग्य आपने मेरी रचना को मान दिया।बहुत बहुत शुक्रिया आपका।।

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  4. उत्तर
    1. आपका बहुत आभार सुशील जी...बहुत शुक्रिया।।

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  5. सचमुच बचपन गुम हो गया है कही मोटी मोटी किताबों में या फिर प्रतिस्पर्धा में....
    बहुत ही सुन्दर ......लाजवाब रचना लिखी है आपने...बधाई...

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  6. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  7. जी महोदय बहुत बहुत आभार शुक्रिया आपका।बहुत माफी चाहेगे हम कुछ व्यस्त रहने की वजह से हम समय से उपस्थित न हो सके।आपने मान दिया आपका बहुत बहुत आभार शुक्रिया है।

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