ब्लौग सेतु....

27 मई 2017

कोई और नहीं बस मैं!

क्योंकर अक्सर ऐसा होता है मैं होता हूँ ख़ुद  ही ख़ुद के साथ
कोई और नहीं बस मैं
लड़ता हूँ झगड़ता हूँ उलझता हूँ बस यूँ ही ख़ुद के साथ
कोई और नहीं बस मैं
एक बड़ा समंदर होता है जो चाँद निगलकर सोता है
उस आधे दिखते चाँद संग मैं भी डूबा करता हूँ
कोई और नहीं बस मैं
हर वक़्त मुझे जाने का एक खौफ सताया करता है
जलता हूँ बुझता हूँ डरता हूँ संभलता हूँ फिर डर से लड़ जाता हूँ
कोई और नहीं बस मैं 
ये दुनिया चलती रहती है कुछ कहती कुछ सुनती रहती है
लाख मलामत देती है पर मैं बेहया, बेशर्म, बेमुरव्वत हो जाता हूँ
कोई और नहीं बस मैं
कुछ नन्हे सफ़ेद कबूतर पाले हैं मैंने, ये उड़ते हैं गिर पड़ते हैं अभी छोटे हैं
इक रोज़ जब ये बड़े हो जायेंगे अपने पंख फड़फड़ाएंगे,
किसी बड़े मैदान में, खुले आसमान में ये उड़ते जायेंगे, ऊपर, और ऊपर , सबसे ऊपर
वो वहां से फिर किसी नन्हे कबूतर से ही नज़र आयेंगे,
उस रोज़ मैं आज़ाद हो जाऊँगा सुकून से जाऊँगा
कोई और नहीं बस मैं !

लव तोमर 

5 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर भाव....
    आभार आप का कविता-मंच को सहियोग देने के लिये....

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुंदर भाव सुंदर शब्द रचना आदरणीय जी।

    जवाब देंहटाएं
  3. सामवेदनाएँ हर बात का ज़िम्माख़ुद पे ही ले आती हैं ... भावपूर्ण रचना ...

    जवाब देंहटाएं
  4. ये दुनिया चलती रहती है कुछ कहती कुछ सुनती रहती है
    लाख मलामत देती है पर मैं बेहया, बेशर्म, बेमुरव्वत हो जाता हूँ
    कोई और नहीं बस मैं
    इस चर -अचर संसार में सभी कृत्यों का जिम्मेदार भी केवल मैं ही हूँ सुन्दर पंक्तियाँ ! आभार। "एकलव्य"

    जवाब देंहटाएं
  5. ख़ुद का ख़ुद से ही संघर्ष श्रेष्ठता की ओर बढ़ते रहने का विचार है। अंतिम पंक्तियों में बहुत कुछ कह डाला है आपने। बधाई।

    जवाब देंहटाएं

स्वागत है आप का इस ब्लौग पर, ये रचना कैसी लगी? टिप्पणी द्वारा अवगत कराएं...